विकास, समानता के अधिकार को यदि धार्मिक आचरण बाधित करे तो ‘राज्य’ कर सकता है हस्तक्षेप: न्यायालय
सुभाष अविनाश
- 25 Nov 2024, 09:09 PM
- Updated: 09:09 PM
नयी दिल्ली, 25 नवंबर (भाषा) उच्चतम न्यायालय ने सोमवार को कहा कि देश की ‘‘पंथ निरपेक्ष’’ प्रकृति इसे धर्म से जुड़े आचरण में हस्तक्षेप करने से नहीं रोकती, जबतक कि वे व्यापक जनहित में विकास एवं समानता के अधिकार को बाधित नहीं करते हों।
प्रधान न्यायाधीश संजीव खन्ना और न्यायमूर्ति संजय कुमार की पीठ ने कहा कि यह सच है कि संविधान सभा ‘‘समाजवादी’’ और ‘‘पंथ निरपेक्ष’’ शब्दों को प्रस्तावना में शामिल करने के लिए सहमत नहीं था, लेकिन संविधान में संशोधन करने की शक्ति संसद को दिये जाने के कारण यह एक जीवंत दस्तावेज है।
पीठ ने कहा, ‘‘हालांकि, देश की ‘पंथ निरपेक्ष’ प्रकृति धर्म से जुड़े आचरण करने पर रोक नहीं लगाती, जब वे व्यापक जनहित में हों और जब तक कि विकास एवं समानता के अधिकार को बाधित नहीं करती हों। सार यह है कि पंथनिरपेक्षता की अवधारणा समानता के अधिकार के एक पहलू का प्रतिनिधित्व करती है जो (संविधान के) मूल ढांचे में समाहित है और जो संवैधानिक योजना की पद्धति को दर्शाती है।’’
एक ऐतिहासिक फैसले में, शीर्ष न्यायालय ने संविधान की प्रस्तावना में ‘‘समाजवादी’’, ‘‘पंथ निरपेक्ष’’ और ‘‘अखंडता’’ जैसे शब्दों को जोड़ने वाले 1976 के संशोधन को चुनौती देने वाली याचिकाओं को खारिज कर दिया और कहा कि (संविधान में) संशोधन करने की संसद की शक्ति प्रस्तावना तक भी विस्तारित है।
इसमें कहा गया है, ‘‘1949 में ‘पंथ निरपेक्ष’ शब्द को गलत माना जाता था, क्योंकि कुछ विद्वानों और न्यायविदों ने इसे धर्म के विपरीत माना था। समय के साथ, भारत ने पंथ निरपेक्षता की अपनी खुद की व्याख्या विकसित की है, जिसमें ‘राज्य’ न तो किसी धर्म का समर्थन करता है और न ही किसी धर्म के पालन और आचरण को दंडित करता है।’’
प्रधान न्यायाधीश खन्ना ने कहा कि ‘राज्य’ का अपना कोई धर्म नहीं है, सभी व्यक्तियों को अपने चुने हुए धर्म का स्वतंत्र रूप से पालन करने, आचरण करने और प्रचार करने के अधिकार के साथ-साथ अंत:करण की स्वतंत्रता का समान रूप से अधिकार है। साथ ही, सभी नागरिक, चाहे उनकी धार्मिक मान्यताएं कुछ भी हों, उन्हें समान स्वतंत्रता और अधिकार प्राप्त हैं।
न्यायालय ने 44 वर्षों से अधिक की देरी सहित अन्य आधार पर दलीलों को खारिज करते हुए कहा कि ‘‘समाजवादी’’ और ‘‘पंथ निरपेक्ष’’ जैसे शब्द ‘‘प्रस्तावना का अभिन्न अंग’’ हैं, जो याचिकाओं को ‘‘विशेष रूप से संदिग्ध’’ बनाते हैं।
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