बाल यौन शोषण सामग्री नाबालिगों की गरिमा को बहुत अधिक ठेस पहुंचाती है: उच्चतम न्यायालय
सुरेश माधव
- 23 Sep 2024, 06:05 PM
- Updated: 06:05 PM
नयी दिल्ली, 23 सितंबर (भाषा) उच्चतम न्यायालय ने सोमवार को कहा कि बाल यौन शोषण सामग्री नाबालिगों की गरिमा को बहुत अधिक ठेस पहुंचाती है और यह उन्हें यौन संतुष्टि की वस्तु बना देती है, उनकी मानवता का हरण कर लेती है और उनके मौलिक अधिकारों का उल्लंघन करती है।
न्यायालय ने कहा कि बच्चों को ऐसे माहौल में पलने-बढ़ने का अधिकार है, जहां उनकी गरिमा का सम्मान हो और उन्हें नुकसान से बचाया जाए, लेकिन बाल यौन शोषण और दुर्व्यवहार सामग्री (सीएसईएएम) इस अधिकार का ‘‘सबसे अधिक गंभीर तरीके से उल्लंघन करती है’’।
प्रधान न्यायाधीश डी. वाई. चंद्रचूड़ और न्यायमूर्ति जे. बी. पारदीवाला की पीठ ने कहा कि सीएसईएएम का अस्तित्व और प्रसार सभी बच्चों की गरिमा का अपमान है, न कि केवल उन सामग्रियों में फिल्माये गए पीड़ितों का।
पीठ ने कहा, ‘‘बाल यौन शोषण की गंभीरता और दूरगामी परिणामों को देखते हुए, सीएसईएएम का उत्पादन, वितरण और उपभोग करने वालों के खिलाफ सख्त कार्रवाई करना स्पष्ट कानूनी और नैतिक अनिवार्यता है। इसमें सीएसईएएम में शामिल लोगों के लिए न केवल आपराधिक दंड शामिल है, बल्कि शिक्षा और जागरूकता अभियान जैसे निवारक उपाय भी शामिल हैं।"
पीठ ने कहा, ‘‘बाल यौन शोषण सामग्री बच्चों की गरिमा को बहुत कमजोर करती है। यह उन्हें यौन संतुष्टि की वस्तु बना देती है, उनकी मानवता का हरण कर लेती है और उनके मौलिक अधिकारों का उल्लंघन करती है।’’
सर्वोच्च न्यायालय ने आज एक ऐतिहासिक फैसला सुनाया, जिसमें कहा गया कि बाल पोर्नोग्राफी देखना और डाउनलोड करना ‘‘यौन अपराधों से बच्चों का संरक्षण (पॉक्सो) अधिनियम, 2012’’ के तहत अपराध है।
पीठ की ओर से 200 पन्नों का फैसला लिखने वाले न्यायमूर्ति पारदीवाला ने कहा कि अपराधियों को न्याय के कटघरे में लाने और बच्चों को और अधिक नुकसान से बचाने के लिए कानून मजबूत और सख्ती से लागू होने चाहिए।
पीठ ने कहा कि सीएसईएएम का पीड़ितों पर प्रभाव विनाशकारी और दूरगामी है, जो उनके मानसिक, भावनात्मक और सामाजिक कल्याण को प्रभावित करता है।
न्यायालय ने कहा, ‘‘हमारे समाज में, जहां सामाजिक कलंक और सम्मान एवं लज्जा की धारणाएं गहराई से समाई हुई हैं, पीड़ितों की दृष्टि से सामाजिक परिणाम विशेष रूप से गंभीर होते हैं। कई पीड़ितों को गहरे सामाजिक कलंक और अलगाव का सामना करना पड़ता है, उन्हें विश्वास के मुद्दों और मानसिक आघात संबंधी चुनौतियों के कारण स्वस्थ संबंध बनाने और उसे कायम रखने में मुश्किल होती है।’’
पीठ ने कहा कि यह निरंतर आघात उनके आत्म-सम्मान और आत्म-मूल्य को गंभीर रूप से प्रभावित कर सकता है, जिससे दीर्घकालिक भावनात्मक और मनोवैज्ञानिक क्षति होती है तथा इसका प्रभाव उनकी शिक्षा एवं रोजगार के अवसरों तक फैल जाता है।
शीर्ष अदालत ने कहा कि पीड़ितों के ठीक होने एवं अपने जीवन को एक बार फिर से पटरी पर लाने में मदद के लिए करुणामयी और व्यापक सहायता प्रदान करना महत्वपूर्ण होता है तथा आघात से संबंधित परामर्श और सहायता समूहों सहित विभिन्न चिकित्सीय हस्तक्षेप पीड़ितों को अपने अनुभवों को संसाधित करने एवं ठीक होने के लिए एक सुरक्षित स्थान प्रदान कर सकते हैं।
इसने कहा, "पीड़ितों को उनकी स्थिति की जटिलताओं को दूर करने और उनके जीवन को फिर से पटरी पर लाने में मदद के लिए कानूनी और सामाजिक सहायता सेवाएं भी आवश्यक हैं।"
पीठ ने कहा कि यौन शोषण का कोई भी कृत्य स्वाभाविक रूप से बच्चे पर स्थायी शारीरिक और भावनात्मक आघात पहुंचाता है।
इसने कहा, ‘‘हालांकि, अश्लील सामग्री के माध्यम से (यौन) दुर्व्यवहार के इस कृत्य का प्रसार अभिघात को और अधिक गंभीर तथा गहरा कर देता है, जिससे मनोवैज्ञानिक मर्ज बन जाता है।’’
पीठ ने कहा, ‘‘यह तय करना महत्वपूर्ण है कि पारंपरिक रूप से 'बाल पोर्नोग्राफ़ी' कहे जाने वाले प्रत्येक मामले में वास्तव में बच्चे का शोषण होता है। 'बाल पोर्नोग्राफ़ी' शब्द का उपयोग अपराध को महत्वहीन बना सकता है, क्योंकि पोर्नोग्राफ़ी को अक्सर वयस्कों के बीच सहमति से किया गया कार्य माना जाता है।’’
पीठ ने कहा, ‘‘...'बाल यौन शोषण और दुर्व्यवहार सामग्री' या 'सीएसईएएम' शब्द अधिक सटीक रूप से इस वास्तविकता को दर्शाता है कि ये चित्र और वीडियो केवल अश्लील नहीं हैं, बल्कि उन घटनाओं के रिकॉर्ड हैं, जहां किसी बच्चे का यौन शोषण और दुर्व्यवहार किया गया है या जहां किसी भी स्व-निर्मित दृश्य चित्रण के माध्यम से बच्चों के साथ किसी भी तरह के दुर्व्यवहार को दर्शाया गया है।"
शीर्ष अदालत ने मद्रास उच्च न्यायालय के उस फैसले को खारिज कर दिया, जिसमें कहा गया था कि ‘बाल पोर्नोग्राफी’ को डाउनलोड करना और देखना पॉक्सो अधिनियम और आईटी अधिनियम के तहत अपराध नहीं है।
शीर्ष अदालत ने मद्रास उच्च न्यायालय के आदेश को चुनौती देने वाली याचिका पर अपना फैसला सुनाया।
भाषा सुरेश