दुनिया संकट के कगार पर: सरकारों को सिर्फ हथियारों पर नहीं, बल्कि शांति पर भी निवेश करना चाहिए
(द कन्वरसेशन) मनीषा नरेश अविनाश
- 17 Sep 2025, 04:54 PM
- Updated: 04:54 PM
(जेना सैपियानो, यूनिवर्सिटी ऑफ ओटावा)
ओटावा, 17 सितम्बर (द कन्वरसेशन) वैश्विक सुरक्षा संकेतक स्पष्ट रूप से बताते हैं कि शांति और स्थिरता की स्थिति में गंभीर गिरावट आई है। अधिकांश रिपोर्टों के अनुसार, आज की दुनिया हाल के इतिहास में कहीं अधिक हिंसाग्रस्त और खतरनाक बन चुकी है।
साल 2024 में, विश्वभर में राज्य-आधारित संघर्षों की संख्या 1946 के बाद अपने सबसे उच्च स्तर पर पहुंच गई है। लगातार दस वर्षों से सैन्य खर्च बढ़ रहा है और यह अब वार्षिक 2.7 खरब अमेरिकी डॉलर से ऊपर पहुंच चुका है। सशस्त्र संघर्षों के पीड़ित बच्चों की संख्या रिकॉर्ड स्तर पर पहुंच गई है, जबकि महिलाओं के अधिकारों पर भी वैश्विक स्तर पर खतरा है।
विश्व आज कई जटिल संकटों का सामना कर रहा है। सितंबर 2024 में, संयुक्त राष्ट्र ने ‘समिट फॉर द फ्यूचर’ का आयोजन किया, जिसका उद्देश्य शीत युद्ध के बाद बहुपक्षीय प्रणाली के पतन, बढ़ती संघर्ष स्थितियों और मानवीय आपदाओं से निपटने पर चर्चा करना था। ये सभी संकट जलवायु परिवर्तन के युग में उभर रहे हैं।
ये संकट आपस में जुड़े हुए हैं, क्योंकि बढ़ती गर्मी और सूखे की स्थितियों के कारण हिंसा की आशंका बढ़ जाती है। इसके साथ ही, सैन्य बल ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन और पर्यावरणीय क्षति में भी बड़ी भूमिका निभाते हैं, जो कभी-कभी पर्यावरणीय अपराध के रूप में देखा जाता है।
सैन्य खर्च में वृद्धि
वैश्विक हिंसा और असुरक्षा के बढ़ने पर अधिकांश देशों का प्राथमिक जवाब सैन्य बजट बढ़ाना रहा है। यूरोप में यह मुख्यतः रूस के 2022 में यूक्रेन पर आक्रमण के बाद बढ़ी चिंता के कारण है। रूस द्वारा पोलैंड और रोमानिया के हवाई क्षेत्र में हाल ही में ड्रोन भेजने की घटना इस खतरे को दर्शाती है।
साल 2025 के नाटो शिखर सम्मेलन में, अमेरिकी दबाव में, सदस्यों ने 2035 तक अपनी जीडीपी का 5 प्रतिशत रक्षा और सुरक्षा खर्च के लिए आवंटित करने का वादा किया। 2024 में अधिकांश यूरोपीय देशों ने अपने सैन्य बजट बढ़ाए हैं, रूस ने भी ऐसा किया है।
चीन ने पिछले 30 वर्षों में लगातार सैन्य खर्च बढ़ाया है। अमेरिका रक्षा पर खर्च करने के मामले में सबसे बड़ा देश है और उसने भी 2024 में सैन्य खर्च बढ़ाया, क्योंकि वह इज़राइल को भारी मात्रा में सैन्य सहायता भेज रहा है।
शांति प्रयासों की उपेक्षा का मोल
वहीं, शांति निर्माण और शांति स्थापना के लिए काम करने वाले संगठन गंभीर अर्थ संकट का सामना कर रहे हैं। इस क्षेत्र को “संकुचित” बताया जा रहा है। उदाहरण के लिए, डोनाल्ड ट्रंप प्रशासन ने सत्ता में आते ही ‘अमेरिका इंस्टीट्यूट ऑफ पीस’ को बंद कर दिया।
अमेरिकी अनुदान कटौती और विश्वभर में महिलाओं के अधिकारों के खिलाफ प्रतिक्रिया ने लैंगिक समानता को एजेंडा से बाहर कर दिया है। महिलाओं के नेतृत्व वाले शांति प्रयासों को विशेष रूप से फंडिंग की कमी झेलनी पड़ रही है, जबकि यह वर्ष संयुक्त राष्ट्र के ‘महिला, शांति और सुरक्षा’ एजेंडा की 25वीं वर्षगांठ भी है।
इसके बावजूद, अफगानिस्तान जैसे स्थानों पर महिलाओं और लड़कियों के खिलाफ हिंसा गंभीर बनी हुई है, जहां तालिबान ने लैंगिक भेदभाव की प्रणाली लागू की है। फलस्तीन में, संयुक्त राष्ट्र की विशेष संवाददाता रीम अलसालेम ने इज़राइल द्वारा फलस्तीनी महिलाओं और लड़कियों को मारे जाने को ‘महिला नरसंहार’ (फेमी-जीनोसाइड) बताया है।
वैश्विक हिंसा का संकट
एक विभाजित दुनिया में, शक्तिशाली देशों के बीच बढ़ते तनाव के कारण अंतरराष्ट्रीय शांति व्यवस्था कमजोर हो रही है, और मानवीय जरूरतें हिंसक संघर्षों की वजह से बढ़ती जा रही हैं। फिर भी सरकारें अपनी सैन्य ताकत और हथियारों पर अधिक खर्च कर रही हैं, जबकि शांति स्थापना में निवेश बहुत कम कर रही हैं।
यह प्रवृत्ति दुनिया को और भी खतरनाक बना रही है। बर्लिन स्थित गैर-सरकारी संस्था ‘बर्गहॉफ फाउंडेशन’ के कार्यकारी निदेशक क्रिस काउल्टर के अनुसार, “एक सच्चे सुरक्षित विश्व के लिए संवाद और शांति निर्माण जरूरी है, केवल रक्षा बजट से कुछ नहीं होगा।”
शांति की राह में चुनौतियां
दुनिया अब भी स्थायी शांति कायम करने की प्रक्रिया सीख रही है। पिछले कुछ दशकों में किए गए कई शांति समझौते टूट चुके हैं और संघर्ष फिर शुरू हो गए हैं। जहां समझौते कायम हैं, वहां भी संरचनात्मक और रोजमर्रा की हिंसा विशेषकर महिलाओं के लिए व्यापक है।
शांति के लिए सौदेबाजी की ओर एक चिंताजनक बदलाव हो रहा है, जिसमें समावेशिता और निष्पक्षता जैसे मूल सिद्धांत छोड़ दिए जा रहे हैं। लड़ाई में “तकनीकी विराम” को प्राथमिकता देना, स्थायी समाधान की बजाय, शांति प्रयासों की विफलता का संकेत है।
आगे का रास्ता
यदि राष्ट्र अपनी निवेश नीति को शांति निर्माण की ओर नहीं मोड़ते हैं, तो असुरक्षा और बढ़ेगी, और अंतरराष्ट्रीय मानदंड व मानवाधिकार कमजोर होंगे। केवल सैन्य खर्च पर निर्भर रहना संघर्ष को रोकने में असफल रहता है और यह लैंगिक समानता, मानवाधिकार और शांति स्थापना पर नकारात्मक प्रभाव डालता है।
इसलिए, देशों को अपने सैन्य बजट को अत्यधिक स्तर तक बढ़ाने से बचना चाहिए और इसके बजाय शांति अनुसंधान, मध्यस्थता प्रयासों और शांति से संबंधित संस्थानों में निवेश बढ़ाना चाहिए।
(द कन्वरसेशन) मनीषा नरेश