दिव्यांगजन अधिकारों के प्रति भारत का दृष्टिकोण विकसित होकर अधिकार आधारित बना: न्यायालय
सुभाष नरेश
- 12 Sep 2025, 07:22 PM
- Updated: 07:22 PM
नयी दिल्ली, 12 सितंबर (भाषा) उच्चतम न्यायालय ने शुक्रवार को कहा कि दिव्यांगजन अधिकारों के प्रति देश का दृष्टिकोण करूणा और चिकित्सा मॉडल से विकसित होकर अधिकार-आधारित बन गया है तथा उसने वैधानिक प्रावधानों की व्याख्या में न्यायपालिका की ‘‘महत्वपूर्ण भूमिका’’ को रेखांकित किया।
न्यायमूर्ति विक्रम नाथ और न्यायमूर्ति संदीप मेहता की पीठ ने कहा कि अपनी व्याख्या के माध्यम से न्यायपालिका ने दिव्यांगता को न केवल एक चिकित्सा स्थिति के रूप में, बल्कि एक प्रकार के संस्थागत नुकसान के रूप में ‘‘पुनर्परिभाषित’’ किया है, जिसके लिए संवैधानिक ढांचे के भीतर सक्रियता से निवारण, संरक्षण और समावेशन की आवश्यकता है।
न्यायालय ने कहा कि दिव्यांगता की अवधारणा संवैधानिक वादों और वास्तविकता के बीच के अंतर को रेखांकित करती है।
पीठ ने कहा, ‘‘जब कानून प्रणालियां दिव्यांगता को एक मेडिकल समस्या के रूप में देखती हैं जिसके लिए समायोजन की आवश्यकता होती है, न कि मानव विविधता के एक ऐसे रूप के रूप में जो समान भागीदारी का हकदार है, तो वे अपनी कमजोरियों और सीमाओं को उजागर करती हैं।’’
शीर्ष अदालत दिव्यांगजनों के समक्ष पेश आने वाली प्रणालीगत बाधाओं को दूर करने और वैधानिक सुरक्षा उपायों के प्रवर्तन को सुनिश्चित करने के अनुरोध वाली याचिका पर सुनवाई कर रही है।
पीठ ने कहा, ‘‘दिव्यांगता को सुधार की आवश्यकता वाली कमी के रूप में देखने के बजाय, कानून को इसे एक ऐसी स्थिति के रूप में चिह्नित करना चाहिए जो कानूनी, सामाजिक और संस्थागत ढांचे की वास्तविक प्रकृति को उजागर करती है। साथ ही, यह स्पष्ट करती है कि क्या वे मानव विविधता को अपनाते हैं या समाज के कुछ सदस्यों को बाहर करने वाली बाधाएं उत्पन्न करते हैं...।’’
इसमें कहा गया है कि दिव्यांगजनों के अनुभव दर्शाते हैं कि क्या लोकतांत्रिक संस्थाएं वास्तव में सभी नागरिकों की सेवा करती हैं या फिर वे मानव क्षमता और भागीदारी के बारे में संकीर्ण धारणाओं के आधार पर बनाई गई हैं।
पीठ ने कहा कि भौतिक स्थानों, डिजिटल प्लेटफॉर्म, सूचना प्रणालियों, प्रक्रियात्मक ढांचों और सार्वजनिक भर्तियों में सुगम्यता का अभाव दिव्यांगजनों को समान भागीदारी की संवैधानिक गारंटी से वंचित करता है।
पीठ ने कहा, ‘‘जब व्यवस्थाएं अपनी शुरुआत से ही सुगम्यता को प्राथमिकता देने में विफल रहती हैं, तो वे नागरिकता और समानता की अपनी अवधारणा में मूलभूत खामियों को उजागर करती हैं।’’
न्यायालय ने कहा, ‘‘दिव्यांगता अधिकारों के प्रति भारत का दृष्टिकोण करूणा और चिकित्सा मॉडल से बढ़कर अधिकार-आधारित ढांचे में बदल गया है। इस परिवर्तन को वैधानिक अधिनियमों, संवैधानिक आदेशों और प्रगतिशील न्यायिक व्याख्या द्वारा आकार दिया गया है।’’
पीठ ने शीर्ष अदालत के कई पूर्व निर्णयों का हवाला दिया, जिसमें वह निर्णय भी शामिल है जिसमें कहा गया था कि दिव्यांगजनों के साथ भेदभाव संविधान के अनुच्छेद 14 और अनुच्छेद 21 का हनन है तथा इस बात पर जोर दिया गया कि गरिमा का अधिकार जीवन के अधिकार का अभिन्न अंग है।
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