विश्व व्यवस्था में बदलाव के मद्देनजर न्यूजीलैंड को बढ़ानी चाहिए अपनी 'कूटनीतिक पहुंच'
द कन्वरसेशन जितेंद्र पवनेश
- 11 Sep 2025, 06:04 PM
- Updated: 06:04 PM
(क्रिस ओगडन, यूनिवर्सिटी ऑफ ऑकलैंड)
ऑकलैंड, 11 सितंबर (द कन्वरसेशन) अमेरिका के राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप द्वारा मुक्त व्यापार, अंतरराष्ट्रीय संगठनों व मानवाधिकारों पर हमलों के कारण पुरानी वैश्विक व्यवस्था में अस्थिरता बढ़ने से न्यूजीलैंड जैसे छोटे देशों को अपनी विदेश नीतियों में समायोजन करने और अपने विकल्पों को सुरक्षित रखने की आवश्यकता उत्पन्न हो गई है।
जैसे-जैसे दीर्घकालीन आर्थिक व कूटनीतिक शक्तियां एशिया और हिंद-प्रशांत क्षेत्र का रुख कर रही हैं, वैकल्पिक बहुपक्षीय समूहों का महत्व बढ़ता जा रहा है।
इनमें सबसे प्रमुख है ‘ब्रिक्स’ नाम का समूह, जो वैश्विक आर्थिक शक्ति का परिपक्व और संभावित रूप से प्रभावशाली केंद्र है।
न्यूजीलैंड इसमें शामिल होने पर विचार करेगा या नहीं, यह अभी भी संशय है लेकिन इस मंच में पहले से ही ऐसे महत्वपूर्ण प्रमुख राष्ट्र शामिल हैं, जो इस देश का भविष्य बदल सकते हैं।
ब्राजील, रूस, भारत और चीन (ब्रिक के मूल सदस्य) द्वारा सितंबर 2006 में गठित ‘ब्रिक्स’ का पहला वार्षिक शिखर सम्मेलन जून 2009 में हुआ था।
दक्षिण अफ्रीका दिसंबर 2010 में इसमें शामिल हुआ, जिसके बाद यह ब्रिक्स बन गया।
‘ब्रिक्स’ का सार आम सहमति व एकजुटता पर आधारित है, न कि दबाव और सामूहिक शक्ति के माध्यम से सदस्यों को लाभ पहुंचाने पर।
तत्कालीन भारतीय प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने 2009 में कहा था, “हम विश्व में समावेशी विकास और समृद्धि के दृष्टिकोण को साझा करते हैं। हम एक नियम-आधारित, स्थिर और पूर्वानुमानित वैश्विक व्यवस्था के पक्षधर हैं।”
अपनी विशाल अर्थव्यवस्थाओं, जनसंख्या, भू-क्षेत्रों और महत्वाकांक्षाओं के आधार पर, ये राष्ट्र बहुध्रुवीय विश्व की साझा दृष्टि को समर्थन देते हैं, जो अब ट्रंप की अलगाववादी "अमेरिका प्रथम" नीतियों के कारण एक भिन्न मार्ग से उभरती हुई दिखाई दे रही है।
मजबूत संख्याबल
‘ब्रिक्स’ सदस्यों ने 2012 में खाद्य एवं ऊर्जा सुरक्षा, आतंकवाद और जलवायु परिवर्तन पर आपसी चिंताओं से प्रेरित होकर ‘दिल्ली घोषणापत्र’ पर हस्ताक्षर किए, जिसमें कहा गया था, “हम एक ऐसे भविष्य की कल्पना करते हैं, जो वैश्विक शांति, आर्थिक और सामाजिक प्रगति से चिह्नित हो तथा विश्व में उभरते और विकासशील देशों का मजबूत प्रतिनिधित्व हो।”
‘ब्रिक्स’ ने 2013 में ‘न्यू डेवलपमेंट बैंक’ की शुरुआत की, जिसे 2008 के वैश्विक वित्तीय संकट के बाद विश्व की वित्तीय संरचना में सुधार लाने के लिए तैयार किया गया था।
विकासशील देशों में सतत विकास और बुनियादी ढांचा परियोजनाओं को वित्तपोषित करने वाला यह बैंक अब विश्व बैंक और अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष जैसी पुरानी पश्चिम-आधारित संस्थाओं को टक्कर दे रहा है।
‘ब्रिक्स’ के बढ़ते महत्व को इसके हालिया विस्तार ने और भी बढ़ा दिया है।
वर्ष 2024 में मिस्र, इथियोपिया, ईरान, सऊदी अरब व संयुक्त अरब अमीरात और 2025 में इंडोनेशिया ‘ब्रिक्स’ के सदस्य बन गये।
अर्जेंटीना ने भी 2024 में ‘ब्रिक्स’ में शामिल होने पर सहमति जताई थी लेकिन बाद में अमेरिका-के प्रति झुकाव रखने वाले राष्ट्रपति जेवियर माइली के निर्वाचित होने के कारण वह इससे बाहर हो गया।
इस विस्तार के साथ ही 2023 में वैश्विक सकल घरेलू उत्पाद में ‘ब्रिक्स’ की हिस्सेदारी बढ़कर 39 प्रतिशत हो गई।
सदस्य देश अब दुनिया की 48.5 प्रतिशत आबादी और कुल वैश्विक क्षेत्रफल का 36 प्रतिशत हिस्सा हैं।
ब्रिक्स देशों के पास विश्व के लगभग 72 प्रतिशत दुर्लभ पृथ्वी खनिज भंडार, 43.6 प्रतिशत वैश्विक तेल उत्पादन, 36 प्रतिशत प्राकृतिक गैस उत्पादन और 78.2 प्रतिशत कोयला उत्पादन का हिस्सा है।
ऐसे मापदंडों के आधार पर, ब्रिक्स एक आर्थिक और कूटनीतिक महाशक्ति है। आर्थिक दृष्टिकोण से, यह लगभग 2019 से जी-7 देशों (अमेरिका, जर्मनी, जापान, यूके, फ्रांस, इटली और कनाडा) को पीछे छोड़ता आ रहा है।
एक विकल्प, पसंद नहीं
कूटनीतिक रूप से ‘ब्रिक्स’ सदस्य संयुक्त राष्ट्र महासभा, अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष, विश्व बैंक और जी20 शिखर सम्मेलनों से इतर बैठक कर अपनी राष्ट्रीय नीतियों में बेहतर तालमेल बिठाने का संकल्प लेते हैं।
ऐसे समूह में शामिल होने से देशों को अपने व्यापार और कूटनीतिक क्षमता को बढ़ाने के साथ-साथ अमेरिका द्वारा प्रेरित अस्थिरता से बचाव का एक विकल्प भी मिलता है।
‘ब्रिक्स’ में शामिल होने के साथ ही, निश्चित रूप से संभावित जोखिम भी जुड़े हैं।
पश्चिमी देशों के पारंपरिक गठबंधनों के कमजोर होने से सहायता और निवेश में कमी आ सकती है। हालांकि अब तक ‘ब्रिक्स’ से संबद्ध किसी भी देश पर अतिरिक्त 10 प्रतिशत व्यापार शुल्क लगाने की ट्रंप की धमकी सही साबित नहीं हुई है।
लेकिन जैसा कि अर्थशास्त्री स्टीफन ओनयेइवु ने लिखा कि रूस और ईरान को छोड़कर ‘ब्रिक्स’ के अधिकांश देश और साझेदार या तो पश्चिमी देशों के सहयोगी हैं या वैश्विक मुद्दों पर तटस्थ हैं।
उन्होंने कहा कि वे ऐसे निर्णयों या कार्यों का समर्थन करने की संभावना नहीं रखते, जो पश्चिमी हितों के घोर विरोधी हों।
वर्तमान भू-राजनीतिक स्थिति को देखते हुए न्यूजीलैंड, रूस और ईरान के साथ घनिष्ठ संबंधों से दूरी बना सकता है लेकिन इस मंच (ब्रिक्स) का हिस्सा होने से उसे अन्य सदस्य देशों पर उनके कार्यों या नीतियों को लेकर दबाव बनाने के कूटनीतिक अवसर भी मिलेंगे।
न्यूजीलैंड दरअसल अमेरिका के कई सहयोगियों के साथ बीजिंग-प्रेरित ‘एशिया इन्फ्रास्ट्रक्चर इन्वेस्टमेंट बैंक’ में शामिल हुआ और 2008 में चीन के साथ एक मुक्त व्यापार समझौते पर हस्ताक्षर किए।
हालांकि इसका कोई प्रतिकूल प्रभाव नहीं पड़ा।
सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि ‘ब्रिक्स’ में शामिल होने का मतलब यह नहीं है कि न्यूजीलैंड को अन्य बहुपक्षीय संस्थाओं को छोड़ना होगा।
बल्कि यह वेलिंगटन के लिए अपनी कूटनीतिक पहुंच बढ़ाने और एक ऐसे भविष्य की तैयारी करने का एक व्यावहारिक तरीका होगा, जिसमें एशिया व हिंद-प्रशांत और भी शक्तिशाली बनेंगे।
द कन्वरसेशन जितेंद्र