प्रबंधन अकादमिक जगत में रैंकिंग के प्रति जुनून के चलते उत्पन्न हो रहीं चुनौतियां : शोध
नेत्रपाल सुरेश
- 07 Apr 2025, 07:15 PM
- Updated: 07:15 PM
नयी दिल्ली, सात अप्रैल (भाषा) भारतीय प्रबंधन संस्थान (आईआईएम) लखनऊ एवं कलकत्ता तथा भारतीय प्रौद्योगिक संस्थान (आईआईटी), दिल्ली के संकाय सदस्यों द्वारा किए गए एक शोध में कहा गया है कि प्रबंधन अकादमिक जगत में रैंकिंग के प्रति जुनून न केवल निंदनीय शैक्षणिक प्रथाओं को प्रबल बनाता है, बल्कि पूंजीवाद के साम्राज्यवादी पहलुओं को बढ़ावा भी देता है।
शोध के अनुसार, इस ज्यादा असर विशेष रूप से ‘ग्लोबल साउथ’ में देखने को मिलता है।
‘मैनेजमेंट लर्निंग’ पत्रिका में प्रकाशित शोध में कहा गया है कि वैश्विक स्तर पर उत्कृष्टता की खोज समकालीन प्रबंधन शिक्षा के मूल में है, जो अकसर समाज के लिए महत्वपूर्ण और प्रासंगिक ज्ञान के सृजन की कीमत पर होती है।
आईआईएम, लखनऊ में ‘बिजनेस सस्टेनेबिलिटी’ के सहायक प्रोफेसर प्रियांशु गुप्ता ने कहा, ‘‘भारतीय प्रबंधन संस्थान अंतरराष्ट्रीय स्तर पर ‘भारतीय’ पहचान बनाने का प्रयास करते हैं, साथ ही रैंकिंग के माध्यम से वैश्विक मान्यता भी चाहते हैं। रैंकिंग के प्रति इस जुनून के परिणामस्वरूप कई शैक्षणिक चुनौतियां सामने आती हैं।’’
शोधकर्ताओं ने कहा कि रैंकिंग से उत्कृष्टता की कृत्रिम कमी पैदा होती है, जिससे केवल विशिष्ट संस्थानों पर ही ध्यान केंद्रित होता है, जबकि देश के हजारों उच्च शिक्षा संस्थानों में मजबूत शैक्षणिक बुनियादी ढांचे की आवश्यकता को नजरअंदाज कर दिया जाता है।
गुप्ता ने कहा, ‘‘उच्च प्रभाव वाली पत्रिकाओं में प्रकाशन के दबाव के कारण अनुचित शोध प्रथाओं में वृद्धि हुई है, साथ ही भारतीय शोधकर्ताओं में प्रासंगिक मुद्दों पर ध्यान केंद्रित करने के बजाय पश्चिमी शैक्षणिक ढांचों की नकल करने की प्रवृत्ति बढ़ रही है।’’
गुप्ता ने कहा, ‘‘शैक्षणिक अनुसंधान स्वैच्छिक श्रम पर आधारित होता है, जिसमें शोधकर्ता भारी मुनाफा कमाने वाले कॉर्पोरेट प्रकाशन गृहों के लिए लेखन, समीक्षा और संपादन में अवैतनिक घंटे बिताते हैं, जबकि संकाय सदस्य नौकरी की असुरक्षा से जूझते रहते हैं।’’
उन्होंने बताया कि यह शोध तब किया गया जब संकाय सदस्यों ने शिक्षाविदों के बीच रोजमर्रा की बातचीत में परेशान करने वाला एक पैटर्न देखा।
गुप्ता ने कहा, ‘‘हम अब इस बारे में बात नहीं करते कि हम किस पर काम कर रहे हैं, बल्कि इस बारे में बात करते हैं कि हमारा काम किस रैंक वाली पत्रिका में प्रकाशित हो रहा है। और हमने पाया कि इससे अकसर यह सवाल गौण हो जाता है कि क्या यह काम हमारे समाज के लिए महत्वपूर्ण है, बल्कि यह सवाल अहम हो जाता है कि क्या यह काम शीर्ष पत्रिकाओं में प्रकाशित हो सकता है।’’
भाषा नेत्रपाल