क्या कोई उच्च न्यायालय विस अध्यक्ष से अयोग्यता याचिकाओं पर तय समय में फैसला लेने को कह सकता है?
पारुल सुरेश
- 25 Mar 2025, 09:22 PM
- Updated: 09:22 PM
नयी दिल्ली, 25 मार्च (भाषा) उच्चतम न्यायालय ने मंगलवार को इस बात पर विचार किया कि क्या कोई उच्च न्यायालय किसी विधानसभा अध्यक्ष को विधायकों को अयोग्य ठहराए जाने संबंधी याचिकाओं पर एक निश्चित अवधि में निर्णय लेने का निर्देश दे सकता है।
न्यायमूर्ति बीआर गवई और न्यायमूर्ति ऑगस्टीन जॉर्ज मसीह की पीठ उन याचिकाओं पर सुनवाई कर रही थी, जिनमें राज्य में कांग्रेस में शामिल हुए भारत राष्ट्र समिति (बीआरएस) के कुछ विधायकों को विधानसभा की सदस्यता से अयोग्य ठहराए जाने संबंधी याचिकाओं पर निर्णय लेने में तेलंगाना विधानसभा अध्यक्ष की कथित देरी करने का मुद्दा उठाया गया था।
पीठ ने कहा, “हम मामले के गुण-दोष पर विचार नहीं कर रहे हैं। हम केवल इस सवाल पर विचार कर रहे हैं कि जब अध्यक्ष अपने अधिकार क्षेत्र का प्रयोग नहीं करता है, तो क्या उच्च न्यायालय उसे (अध्यक्ष को) एक निश्चित अवधि के भीतर कानून के अनुसार कार्य करने का निर्देश दे सकता है।”
शीर्ष अदालत में दाखिल एक याचिका में तेलंगाना उच्च न्यायालय के नवंबर 2024 के उस आदेश को चुनौती दी गई है, जिसमें कहा गया था कि विधानसभा अध्यक्ष को तीनों विधायकों के खिलाफ अयोग्यता याचिकाओं पर उचित समय के भीतर फैसला करना चाहिए।
उच्च न्यायालय ने एकल न्यायाधीश के नौ सितंबर 2024 के फैसले के खिलाफ दायर याचिकाओं पर सुनवाई के दौरान यह आदेश पारित किया था।
एकल न्यायाधीश ने तेलंगाना विधानसभा के सचिव को निर्देश दिया था कि वह विधायकों की अयोग्यता संबंधी याचिका को चार सप्ताह के भीतर सुनवाई का कार्यक्रम तय करने के लिए अध्यक्ष के समक्ष पेश करें।
उच्चतम न्यायालय में दायर दूसरी याचिका बाकी सात विधायकों से संबंधित है, जिन्होंने एक पार्टी को छोड़कर दूसरे दल का दामन थाम लिया था।
बीआरएस नेता पडी कौशिक रेड्डी की ओर से पेश वरिष्ठ अधिवक्ता सीए सुंदरम ने मंगलवार को सुनवाई के दौरान कहा कि मूल प्रश्न यह है कि क्या किसी संवैधानिक अदालत के पास किसी संवैधानिक प्राधिकारी को उसके संवैधानिक दायित्व के अनुसार कार्य करने के लिए कहने की शक्ति और अधिकार है या नहीं।
उन्होंने कहा कि “संविधान हम सभी से ऊपर है” और यह सुनिश्चित करना अदालत का संवैधानिक कर्तव्य है कि संविधान का पालन किया जाए।
सुंदरम ने कहा कि यह कहना न्याय की घोर विफलता होगी कि अदालत को यह सुनिश्चित करने का अधिकार नहीं है कि कोई प्राधिकारी संविधान के अनुरूप कार्य करे।
पीठ ने कहा, “मुद्दा बहुत सीमित है- क्या एकल न्यायाधीश का अध्यक्ष से चार सप्ताह के भीतर का सुनवाई का कार्यक्रम तय करने का अनुरोध करना उचित था।”
उसने कहा कि सर्वोच्च न्यायालय इस बात की भी जांच करेगा कि क्या उच्च न्यायालय की खंडपीठ का एकल न्यायाधीश के आदेश में हस्तक्षेप करना सही था।
न्यायमूर्ति गवई ने कहा कि दलबदल के आधार पर अयोग्यता के प्रावधानों से संबंधित संविधान की 10वीं अनुसूची केवल “आया राम गया राम” से बचने के लिए लाई गई थी।
मामले में दलीलों पर सुनवाई दो अप्रैल को जारी रहेगी।
भाषा पारुल