संविधान की प्रस्तावना में 'समाजवादी', 'धर्मनिरपेक्ष' शब्दों को चुनौती देने वाली याचिकाएं खारिज
सिम्मी मनीषा
- 25 Nov 2024, 05:23 PM
- Updated: 05:23 PM
नयी दिल्ली, 25 नवंबर (भाषा) उच्चतम न्यायालय ने संविधान की प्रस्तावना में ‘समाजवादी’, ‘धर्मनिरपेक्ष’ और ‘अखंडता’ जैसे शब्द जोड़ने वाले 1976 के संशोधन को चुनौती देने वाली याचिकाएं सोमवार को खारिज कर दीं।
‘‘समाजवादी’’, ‘‘धर्मनिरपेक्ष’’ और ‘‘अखंडता’’ शब्दों को 1976 में इंदिरा गांधी के नेतृत्व वाली सरकार द्वारा पेश किए गए 42वें संविधान संशोधन के तहत संविधान की प्रस्तावना में शामिल किया गया था।
भारत के प्रधान न्यायाधीश संजीव खन्ना और न्यायमूर्ति संजय कुमार की पीठ ने पूर्व राज्यसभा सदस्य सुब्रमण्यम स्वामी और अधिवक्ता अश्विनी उपाध्याय की उन याचिकाओं पर 22 नवंबर को अपना फैसला सुरक्षित रख लिया था जिनमें संविधान की प्रस्तावना में ‘‘समाजवादी’’ और ‘‘धर्मनिरपेक्ष’’ शब्दों को शामिल किए जाने को चुनौती दी गई थी।
इस संबंध में दायर की गई शुरुआती याचिकाओं में से एक याचिका 2020 में अधिवक्ता विष्णु शंकर जैन के माध्यम से बलराम सिंह ने दायर की थी।
प्रधान न्यायाधीश ने फैसला सुनाते हुए कहा, ‘‘रिट याचिकाओं पर आगे विचार-विमर्श करने और निर्णय सुनाने की आवश्यकता नहीं है। संविधान में संशोधन की संसद की शक्ति प्रस्तावना पर भी लागू होती है।’’
उन्होंने कहा कि फैसले ने स्पष्ट कर दिया है कि इतने सालों के बाद प्रक्रिया को इस तरह से निष्प्रभावी नहीं किया जा सकता।
पीठ ने कहा कि संविधान को अपनाने की तिथि अनुच्छेद 368 के तहत सरकार की शक्ति को कम नहीं करेगी और इसके अलावा इसे चुनौती भी नहीं दी जा रही है।
उसने कहा कि संसद की संशोधन करने की शक्ति प्रस्तावना पर भी लागू होती है।
शीर्ष अदालत ने कहा, ‘‘इतने साल हो गए हैं, अब इस मुद्दे को क्यों उठाया जा रहा है?’’
इस मामले में विस्तृत फैसले की प्रतीक्षा की जा रही है।
इससे पहले, पीठ ने अपना फैसला सुरक्षित रखते हुए कहा था कि संबंधित संशोधन (42वां संशोधन) की इस न्यायालय द्वारा कई बार न्यायिक समीक्षा की गई है। संसद ने हस्तक्षेप किया है। पीठ के अनुसार, यह नहीं कहा जा सकता कि उस समय (आपातकाल में) संसद ने जो कुछ भी किया वह सब निरर्थक था।
संशोधन के जरिये प्रस्तावना में भारत के वर्णन को ‘‘संप्रभु, लोकतांत्रिक गणराज्य’’ से बदलकर ‘‘संप्रभु, समाजवादी, धर्मनिरपेक्ष, लोकतांत्रिक गणराज्य’’ किया गया था। भारत में आपातकाल की घोषणा तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने 25 जून, 1975 को की थी और आपातकाल 21 मार्च, 1977 तक लागू था।
सुनवाई के दौरान पीठ ने याचिकाकर्ता के अनुरोध के अनुसार मामले को बृहद पीठ को भेजने से इनकार कर दिया था और कहा था कि भारतीय अर्थ में ‘‘समाजवादी होना’’ एक ‘‘कल्याणकारी राज्य’’ माना जाता है।
एक अन्य याचिकाकर्ता अधिवक्ता अश्विनी उपाध्याय ने कहा था कि वह ‘‘समाजवाद’’ और ‘‘धर्मनिरपेक्षता’’ की अवधारणाओं के खिलाफ नहीं हैं, लेकिन प्रस्तावना में इन्हें शामिल किये जाने का विरोध करते हैं।
एक अलग याचिका दायर करने वाले स्वामी ने कहा था कि बाद में जनता पार्टी के नेतृत्व वाली केंद्र सरकार ने भी इन शब्दों को प्रस्तावना में शामिल करने का समर्थन किया था। उन्होंने कहा कि सवाल यह है कि क्या इसे प्रस्तावना में एक अलग पैराग्राफ के रूप में जोड़ा जाना चाहिए। स्वामी ने कहा कि यह नहीं कहा जाना चाहिए कि 1949 में इसे समाजवादी और धर्मनिरपेक्ष के रूप में अपनाया गया था।
स्वामी ने कहा था, ‘‘न केवल आपातकाल के दौरान संसद ने इसे अपनाया, बल्कि बाद में जनता पार्टी सरकार के समय संसद ने भी दो तिहाई बहुमत से इसका समर्थन किया, जिसमें समाजवाद और धर्मनिरपेक्षता के इस विशेष पहलू को बरकरार रखा गया।’’
उन्होंने कहा, ‘‘यहां मुद्दा केवल इतना है- क्या हम यह मानेंगे कि इसे एक अलग पैराग्राफ के रूप में होना चाहिए, क्योंकि हम यह नहीं कह सकते कि 1949 में इन शब्दों को अपना लिया गया था। इसलिए, एकमात्र मुद्दा यह रह जाता है कि इसे स्वीकार करने के बाद, हम मूल पैराग्राफ के नीचे एक अलग पैराग्राफ रख सकते हैं।’’
भाषा
सिम्मी