ईंटें ढोने से लेकर स्टेथोस्कोप पहनने तक : सरफराज का डॉक्टर बनने का सफर
शफीक नरेश
- 25 Nov 2024, 05:26 PM
- Updated: 05:26 PM
कोलकाता, 25 नवंबर (भाषा) पश्चिम बंगाल में पूर्वी मेदिनीपुर जिले के एक गांव के रहने वाले 21 वर्षीय सरफराज 300 रुपये प्रतिदिन की दिहाड़ी पर चिलचिलाती धूप में करीब 400 ईंटें ढोते थे। दिन में मजदूरी करने वाला यह प्रतिभाशाली युवक रात को मेडिकल की किताबों के पन्ने पलटता था।
सरफराज की मां चाहती थीं कि उनका बेटा डॉक्टर बने और इस सपने को सच करने के लिए उन्होंने कठिन परिश्रम किया। अंततः सरफराज ने अपने सपने को हकीकत में बदल लिया है। उन्होंने कोलकाता के नील रतन सरकारी मेडिकल कॉलेज में अपनी कक्षाएं शुरू कर दी हैं।
सरफराज ने अब निर्माण स्थलों की जगह मेडिकल कक्षाओं को अपनी कर्मशाला बना लिया है, जहां वह गर्व से डॉक्टर वाला सफेद कोट और स्टेथोस्कोप पहनते हैं।
उन्होंने ‘पीटीआई-भाषा’ से कहा, ‘‘मेरी मां का सपना था कि मैं डॉक्टर बनूं, इसलिए मैंने उनके सपने को जीने का फैसला किया। यह नीट में मेरा तीसरा प्रयास था। अगर मैं इस बार सफल नहीं होता, तो मुझे हार माननी पड़ती। मैं ऐसे परिवार से आता हूं, जहां यह एक सपने के सच होने जैसा है।’’
नीट-2024 में सरफराज ने अपनी मां के सपने को हकीकत में बदल दिया है। सीमित साधनों वाले परिवार में जन्मे सरफराज का बचपन आर्थिक संघर्ष करते हुए गुजरा। सरफराज तीन भाई-बहन हैं।
शैक्षणिक रूप से उत्कृष्ट प्रदर्शन करने के बाद सरफराज राष्ट्रीय रक्षा अकादमी में शामिल होने की इच्छा रखते थे। हालांकि उन्होंने शुरुआती चरण पास कर लिया, लेकिन एक दुर्घटना ने अंतिम चरण के लिए अर्हता प्राप्त करने की उनकी उम्मीदों को धराशायी कर दिया।
कोविड-19 महामारी उनके लिए एक महत्वपूर्ण मोड़ साबित हुई क्योंकि सरकार से मिली आर्थिक सहायता के बाद सरफराज ने एक स्मार्टफोन खरीदा और भारत की प्रतिस्पर्धी मेडिकल प्रवेश परीक्षा ‘नीट’ की तैयारी शुरू की।
सरफराज ने कहा, ‘‘मैं अपने मजदूर पिता के साथ सुबह से दोपहर तक मजदूर के रूप में काम करता था। फिर मैं घर वापस जाता और लगातार सात घंटे पढ़ाई करता। पिछले तीन सालों से यही मेरी दिनचर्या थी।’’
सरफराज का लक्ष्य सिर्फ डॉक्टर बनने तक ही सीमित नहीं है। वह अपने गांव लौटकर गरीबों की सेवा करने का सपना देखते हैं।
सरफराज ने कहा, ‘‘जब मैं डॉक्टर बन जाऊंगा, तो मैं वापस आकर गरीबों के बीच काम करना चाहता हूं। उन्होंने मेरी यात्रा में मेरा साथ दिया है। अब, अपने गांव को कुछ वापस देने की बारी मेरी है।’’
भाषा शफीक