यह मानना पूर्णत: गलत कि अल्पसंख्यकों को शिक्षा के लिए ‘सुरक्षित स्थान’ की आवश्यकता है: न्यायमूर्ति
देवेंद्र रंजन
- 08 Nov 2024, 10:08 PM
- Updated: 10:08 PM
नयी दिल्ली, आठ नवंबर (भाषा) उच्चतम न्यायालय के न्यायाधीश सतीश चंद्र शर्मा ने शुक्रवार को कहा कि यह मानना ‘पूरी तरह गलत’ है कि देश में अल्पसंख्यकों को शिक्षा और ज्ञान के लिए किसी ‘सुरक्षित स्थान’ की आवश्यकता है।
प्रधान न्यायाधीश (सीजेआई) डी.वाई. चंद्रचूड़ की अध्यक्षता वाली सात न्यायाधीशों की संविधान पीठ ने 4:3 के बहुमत के फैसले में कहा कि कोई कानून या कार्यकारी कार्रवाई जो शैक्षणिक संस्थानों की स्थापना या प्रशासन में धार्मिक या भाषाई अल्पसंख्यकों के खिलाफ भेदभाव करती है, संविधान के अनुच्छेद 30(1) के विरुद्ध है।
प्रधान न्यायाधीश ने न्यायमूर्ति संजीव खन्ना, न्यायमूर्ति जे बी पारदीवाला और न्यायमूर्ति मनोज मिश्रा की ओर से भी 118 पृष्ठ का फैसला लिखा। संविधान पीठ के तीन अन्य न्यायाधीशों न्यायमूर्ति सूर्यकांत, न्यायमूर्ति दीपांकर दत्ता और न्यायमूर्ति सतीश चंद्र शर्मा ने अलग राय लिखी।
न्यायमूर्ति शर्मा ने कहा, ‘‘यह मान लेना कि देश के अल्पसंख्यकों को शिक्षा और ज्ञान प्राप्त करने के लिए किसी ‘सुरक्षित स्थान’ की आवश्यकता है, पूरी तरह गलत है।’’
न्यायाधीश ने कहा कि देश के अल्पसंख्यक न केवल मुख्यधारा में शामिल हो गए हैं, बल्कि वे इसका एक महत्वपूर्ण पहलू भी हैं।
न्यायमूर्ति शर्मा ने कहा, ‘‘देश की राष्ट्रीय प्रकृति की संस्थाएं सदैव अल्पसंख्यकों के हितों की सेवा करती हैं तथा शिक्षा के विविध केंद्र हैं।’’
प्रधान न्यायाधीश डी.वाई. चंद्रचूड़ द्वारा लिखित बहुमत के फैसले में कहा गया कि एएमयू के अल्पसंख्यक दर्जे के विवादास्पद कानूनी प्रश्न पर अब नियमित पीठ द्वारा निर्णय लिया जायेगा।
न्यायमूर्ति शर्मा ने 193 पृष्ठों के फैसले में कहा कि संविधान के अनुच्छेद 30 के तहत प्रशासन के अधिकार का दावा करने के लिए अल्पसंख्यक द्वारा किसी संस्था की ‘‘स्थापना’’ आवश्यक है।
अनुच्छेद 30 अल्पसंख्यकों को शैक्षणिक संस्थान स्थापित करने और उनका प्रशासन करने के अधिकार से संबंधित है।
पांच न्यायाधीशों की संविधान पीठ ने 1967 में एस. अजीज बाशा बनाम भारत संघ मामले में फैसला दिया था कि एएमयू एक केंद्रीय विश्वविद्यालय है इसलिए इसे अल्पसंख्यक संस्थान नहीं माना जा सकता।
न्यायमूर्ति शर्मा ने कहा कि दो न्यायाधीशों की पीठ, प्रधान न्यायाधीश के पीठ का हिस्सा न होने की स्थिति में मामले को सीधे सात न्यायाधीशों की पीठ को संदर्भित नहीं कर सकती थी।
न्यायमूर्ति शर्मा ने कहा कि 1967 के फैसले में अल्पसंख्यकों को विश्वविद्यालय स्थापित करने से नहीं रोका था, बल्कि किसी संस्थान की प्रकृति को निर्धारित करने में विधायी मंशा और वैधानिक प्रावधानों के महत्व पर प्रकाश डाला था।
न्यायमूर्ति शर्मा ने कहा कि अनुच्छेद 30 में ‘‘स्थापना’’ शब्द का अर्थ ‘‘अस्तित्व में लाना या सृजन करना’’ है, तथा इसे ‘‘संस्था की उत्पत्ति’’ या ‘‘संस्था की स्थापना’’ जैसे सामान्य वाक्यांशों के साथ नहीं जोड़ा जा सकता।
उन्होंने कहा कि अनुच्छेद 30 का उद्देश्य ‘‘केवल अल्पसंख्यकों के लिए’’ बस्तियां बनाना नहीं है, बल्कि अल्पसंख्यकों को अपनी पसंद के शैक्षणिक संस्थान स्थापित करने के लिए सकारात्मक अधिकार प्रदान करना है।
उन्होंने कहा कि अनुच्छेद 30(1) का मूल उद्देश्य गैर-अल्पसंख्यक (या ‘‘तटस्थ’’) संस्थानों और अल्पसंख्यक संस्थानों के बीच समानता सुनिश्चित करना है।
न्यायमूर्ति शर्मा ने कहा, ‘‘इसका मूल उद्देश्य गैर-अल्पसंख्यक समुदायों के प्रति किसी भी प्रकार के भेदभाव या विशेषाधिकार को रोकना है, जिससे सभी के लिए कानून के तहत समान व्यवहार की वकालत की जा सके।’’
भाषा देवेंद्र