न्यायमूर्ति दीपांकर दत्ता ने एएमयू के फैसले को लिखने में समय की कमी पर अफसोस जताया
प्रशांत वैभव
- 08 Nov 2024, 07:34 PM
- Updated: 07:34 PM
नयी दिल्ली, आठ नवंबर (भाषा) अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय एक अल्पसंख्यक शैक्षणिक संस्थान नहीं है, उच्चतम न्यायालय के न्यायमूर्ति दीपांकर दत्ता ने शुक्रवार को यह बात कही। उन्होंने कहा कि यदि “समय की कमी” न होती तो वह अपनी असहमतिपूर्ण राय को बेहतर ढंग से व्यक्त कर सकते थे।
न्यायाधीश ने आम सहमति बनाने के लिए “सच्ची लोकतांत्रिक भावना” में विचारों और रायों का आदान-प्रदान न करने की भी निंदा की।
उन्होंने अपने फैसले में लिखा, “उद्देश्यपूर्ण और प्रभावी संवाद के लिए एक साझा मंच, जहां पीठ के सदस्य स्वतंत्र रूप से अपने विचार व्यक्त कर सकें; विचारों को साझा करने और विचारों का आदान-प्रदान करने का प्रयास; सर्वसम्मति बनाने के लिए सच्ची लोकतांत्रिक भावना के साथ विचारों का आदान-प्रदान - ये सभी बातें पीछे छूट गई हैं...।”
उन्होंने इस मामले में फैसला सुरक्षित रखे जाने के बाद से ही न्यायाधीशों पर काम के अत्यधिक दबाव को रेखांकित किया। न्यायमूर्ति दत्ता ने कहा कि विभिन्न प्रकृति के न्यायिक और प्रशासनिक कार्यों ने भी उन पर बोझ बढ़ा दिया था और ऐसे समय में सभी सहकर्मियों की बैठक के लिए प्रधान न्यायाधीश को अनुरोध भेजने के लिहाज से देर हो चुकी थी।
उन्होंने कहा, “अफसोस की बात है कि सात न्यायाधीशों की इस पीठ में शामिल सभी सदस्यों की उपस्थिति में प्रतिद्वंद्वी तर्कों पर किसी भी व्यावहारिक और रचनात्मक चर्चा के बिना, केवल चार न्यायाधीशों की व्यक्तिगत राय ही तैयार की जा सकी और अवलोकन और अनुमोदन के लिए प्रसारित की जा सकी।”
विश्वविद्यालय के अल्पसंख्यक दर्जे के विवादास्पद मुद्दे पर 88 पृष्ठों के एक अलग विचार में न्यायमूर्ति दत्ता ने कहा कि इस मामले में फैसला एक फरवरी, 2024 को सुरक्षित रखा गया था, जबकि प्रधान न्यायाधीश डी.वाई. चंद्रचूड़ की मसौदा राय 17 अक्टूबर को उनके पास आई थी।
उन्होंने कहा, “मुझे इस बात से कोई शिकायत नहीं है कि मुझे अपने विचार उस ढंग से व्यक्त करने के लिए बहुत कम समय मिल रहा है जैसा मैं व्यक्त करना चाहता था। यदि 6 नवंबर, 2024 तक राय प्रसारित करने के लिए समय की कमी न होती, जो सीमा मैंने अपने लिए निर्धारित की थी और जिसका आश्वासन प्रधान न्यायाधीश को दिया था, तो राय कहीं बेहतर ढंग से व्यक्त की जा सकती थी और अधिक कसी हुई हो सकती थी।”
उन्होंने बताया कि सात न्यायाधीशों की पीठ के सदस्य न्यायमूर्ति सूर्यकांत और न्यायमूर्ति सतीश चंद्र शर्मा की अलग-अलग मसौदा राय 6 नवंबर को आई थीं।
प्रधान न्यायाधीश द्वारा 118 पृष्ठों में लिखे गए 4:3 बहुमत के फैसले में, जिसमें न्यायमूर्ति संजीव खन्ना, न्यायमूर्ति जे बी पारदीवाला और न्यायमूर्ति मनोज मिश्रा भी शामिल थे, अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय के अल्पसंख्यक दर्जे के मुद्दे पर निर्णय के लिए एक नई पीठ से अनुरोध किया गया।
न्यायमूर्ति दत्ता ने अपने फैसले की प्रस्तावना में कहा, “फैसला लिखने का कार्य मुझे नहीं सौंपा गया था, जिससे मेरे पास मसौदा राय के मेरे आवासीय कार्यालय तक पहुंचने का इंतजार करने के अलावा कोई विकल्प नहीं बचा।”
उन्होंने कहा, “प्रतीक्षा जारी रही, और 17 अक्टूबर, 2024 को ही भारत के प्रधान न्यायाधीश द्वारा लिखित, जो उस पीठ के पीठासीन न्यायाधीश थे, 117 पृष्ठों की मसौदा राय मेरी मेज पर रखी गई।”
न्यायमूर्ति दत्ता ने कहा कि 10 नवंबर की समयसीमा, प्रधान न्यायाधीश के पद छोड़ने की तिथि, जिसके भीतर अंतिम निर्णय सुनाया जाना था, से अवगत होकर उन्होंने तत्काल मसौदा फैसला पढ़ना शुरू कर दिया, जबकि दैनिक मामलों की तैयारी और अदालती कार्यवाही के संचालन में बिताए जाने वाले लंबे वक्त के बीच उन्होंने इसके लिये समय निकाला।
न्यायमूर्ति दत्ता ने खुलासा किया कि मसौदा राय को पढ़ते ही उन्हें प्रधान न्यायाधीश की संशोधित मसौदा राय प्राप्त हुई है, जिसमें लगभग उतने ही पृष्ठ थे जितने पिछले मसौदा दस्तावेज में थे।
उन्होंने कहा, “यह 25 अक्टूबर, 2024 की शाम को मेरे आवासीय कार्यालय में पहुंचा, जो कि दिवाली के लघु अवकाश की पूर्व संध्या पर था। अन्य बातों के साथ-साथ, संशोधित मसौदे में एक बहुत ही महत्वपूर्ण बदलाव किया गया है।”
उन्होंने कहा कि प्रधान न्यायाधीश की संशोधित मसौदा राय में 1967 में अजीज बाशा मामले में दिए गए फैसले में व्यक्त किए गए इस दृष्टिकोण को अस्वीकार करना शामिल है कि एएमयू अल्पसंख्यक संस्थान नहीं है।
उन्होंने कहा कि 2 नवंबर, 2024 को प्रधान न्यायाधीश के कार्यालय से कुछ और पृष्ठ आए, जिनमें संशोधित मसौदा राय के कुछ पैराग्राफ में सुधार किए गए थे।
न्यायाधीश ने कहा कि वह संशोधित मसौदों में व्यक्त राय और उनमें दर्ज प्रस्तावित निष्कर्षों से पूरी तरह सहमत होने के लिए स्वयं को राजी नहीं कर सके।
उन्होंने कहा, “यह तब की बात है जब मैंने अपने पास उपलब्ध बहुत ही कम समय को ध्यान में रखते हुए अपने विचारों को संक्षेप में लिखने का निर्णय लिया।”
न्यायमूर्ति दत्ता ने कहा कि उनकी मसौदा राय प्रसारित होने के बाद, पीठ के सभी न्यायाधीशों को सात नवंबर को थोड़ी देर के लिए एक साथ मिलने का अवसर मिला, जब यह सामने आया कि प्रधान न्यायाधीश की राय से तीन और न्यायाधीश इत्तेफाक रखते हैं।
उन्होंने कहा, “चूंकि उक्त बैठक में यह बात सामने आई कि मेरा दृष्टिकोण बहुमत से मेल नहीं खाता, इसलिए मेरी मसौदा राय में कुछ परिवर्तन आवश्यक थे और ऐसे परिवर्तनों को इसके मूल आधार को बदले बिना इस अंतिम राय में शामिल कर लिया गया है।”
न्यायमूर्ति दत्ता ने निष्कर्ष निकाला कि एएमयू की स्थापना न तो किसी धार्मिक समुदाय द्वारा की गई थी और न ही इसका प्रशासन किसी अल्पसंख्यक समुदाय द्वारा किया जाता था।
न्यायमूर्ति कांत, न्यायमूर्ति दत्ता और न्यायमूर्ति शर्मा ने इस मुद्दे पर अलग-अलग राय लिखी।
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