न्यायालय ने बाल विवाह कुप्रथा के उन्मूलन के लिए कई दिशानिर्देश तैयार किये
सुरेश माधव
- 18 Oct 2024, 09:24 PM
- Updated: 09:24 PM
नयी दिल्ली, 18 अक्टूबर (भाषा) उच्चतम न्यायालय ने बाल विवाह जैसी ‘सामाजिक बुराई’ के कायम रहने को ‘चिंताजनक" करार देते हुए इस कुप्रथा को समाप्त करने के लिए शुक्रवार को केंद्र, राज्यों और अन्य प्राधिकारियों को कई निर्देश जारी किये।
भारत के प्रधान न्यायाधीश (सीजेआई) डी वाई चंद्रचूड़, न्यायमूर्ति जे बी पारदीवाला और न्यायमूर्ति मनोज मिश्रा की पीठ ने अपने 141 पन्नों के फैसले में नौ शीर्षकों के तहत देश में बाल विवाह रोकथाम कानून के प्रभावी क्रियान्वयन के लिए विभिन्न हितधारकों को कई निर्देश जारी किए, जिनमें देश में जिला स्तर पर बाल विवाह निषेध अधिकारी (सीएमपीओ) के कार्यों का निर्वहन करने के लिए पूरी तरह जिम्मेदार अधिकारियों की नियुक्ति भी शामिल है।
शीर्ष अदालत ने यह भी कहा, ‘‘बाल विवाह एक सामाजिक बुराई है, और इसका प्रचलन एक अपराध है। बाल विवाह की बुराइयों पर लगभग सार्वभौमिक सहमति के बावजूद, इसका जारी रहना गंभीर मुद्दा है। बाल विवाह वह घटना है, जिसमें बच्चों की शादी कानून के तहत न्यूनतम वैधानिक आयु प्राप्त करने से पहले कर दी जाती है।"
न्यायालय ने कहा कि किसी ‘पर्सनल लॉ’ के तहत परंपराएं बाल विवाह निषेध अधिनियम के क्रियान्वयन में बाधा नहीं बन सकतीं और बचपन में कराए गए विवाह अपनी पसंद का जीवन साथी चुनने की स्वतंत्रता छीन लेते हैं।
हालांकि, पीठ ने इस बात पर गौर किया कि बाल विवाह निषेध अधिनियम (पीसीएमए) ‘पर्सनल लॉ’ पर प्रभावी होगा या नहीं, यह मुद्दा विचार के लिए संसद के पास लंबित है। केंद्र ने उच्चतम न्यायालय से पीसीएमए को ‘पसर्नल लॉ’ पर प्रभावी बनाए रखने का आग्रह किया था। इसने कहा कि केंद्र इस मुद्दे पर विभिन्न उच्च न्यायालयों के परस्पर-विरोधी फैसले देने में विफल रहा है, जैसा कि दावा किया गया है।
पीठ ने कहा, ‘‘बाल विवाह निषेध (संशोधन) विधेयक 2021 को 21 दिसंबर, 2021 को संसद में पेश किया गया था। विधेयक को शिक्षा, महिला, बाल, युवा और खेल पर विभाग से संबंधित स्थायी समिति को जांच के लिए भेजा गया था। विधेयक में पीसीएमए में संशोधन की मांग की गई है, ताकि विभिन्न ‘पर्सनल लॉ’ पर कानून के प्रमुख प्रभाव को स्पष्ट रूप से बताया जा सके। इसलिए, यह मुद्दा संसद के समक्ष विचाराधीन है।’’
शीर्ष अदालत ने ‘‘कानूनी प्रवर्तन’’ शीर्षक के तहत कहा, ‘‘राज्य सरकारों और केंद्र शासित प्रदेशों (यूटी) को जिला स्तर पर सीएमपीओ के कार्यों का निर्वहन करने के लिए पूरी तरह जिम्मेदार अधिकारियों की नियुक्ति करनी चाहिए। इन अधिकारियों पर काम की अतिरिक्त जिम्मेदारी नहीं थोपी जानी चाहिए, ताकि बाल विवाह की रोकथाम के काम से उनका ध्यान न भटके।’’
पीठ ने बाल विवाह शब्द को "विरोधाभासी" मानते हुए कहा, "एक बच्चे से तात्पर्य ऐसे व्यक्ति से है जिसकी कानूनी निर्णय लेने की क्षमता पूरी तरह से विकसित नहीं हुई है। दूसरी ओर, विवाह वैधानिक समझ की एक कानूनी संस्था है... विवाह अनुमत और अनुचित सामाजिक व्यवहारों के नियमों को निर्धारित करता है। हालांकि, एक बच्चा वैवाहिक शादी से जुड़े व्यापक और गंभीर दायित्वों को समझने में असमर्थ होता है।’’
इसमें रेखांकित किया गया है कि इस तरह के विवाह प्रायः बच्चों को बौद्धिक, सामाजिक और मनोवैज्ञानिक विकास से वंचित करते हैं तथा उनके जीवन को खतरा पैदा करते हैं।
प्रधान न्यायाधीश ने इस बात पर प्रकाश डाला कि निर्णय में ‘‘बहुत व्यापक’’ समाजशास्त्रीय विश्लेषण किया गया है।
प्रधान न्यायाधीश ने कहा, ‘‘पीसीएमए का उद्देश्य बाल विवाह पर रोक लगाना है लेकिन इसमें किसी बच्चे के कम उम्र में विवाह तय करने की बड़ी सामाजिक कुप्रथा का उल्लेख नहीं है। इस सामाजिक बुराई से बच्चे के चयन के अधिकार का भी हनन होता है... यह उनसे उनके साथी और जीवन पथ के चयन के अधिकार को उनके परिपक्व होने और अपनी स्वतंत्रता का दावा करने में सक्षम होने से पहले ही छीन लेता है।’’
अदालत ने कहा कि बाल विवाह के लिए एक अंतरविषयी दृष्टिकोण की आवश्यकता है, जो हाशिये पर पड़े समुदायों के बच्चों, विशेषकर लड़कियों के इसके कारण और कमजोर होने की बात को स्वीकार करता है।
प्रधान न्यायाधीश ने कहा, ‘‘अंतरविषयी दृष्टिकोण में लिंग, जाति, सामाजिक-आर्थिक स्थिति और भूगोल जैसे कारकों पर विचार करना भी शामिल है, जो कम उम्र में विवाह के जोखिम को अक्सर बढ़ाते हैं।’’
फैसले में कहा गया है कि बाल विवाह के मूल कारणों जैसे गरीबी, लिंग, असमानता, शिक्षा की कमी को दूर करने पर ध्यान केंद्रित करने के अलावा निवारक रणनीतियों को विभिन्न समुदायों की विशिष्ट आवश्यकताओं के अनुरूप बनाया जाना चाहिए।
फैसले में कहा गया है, ‘‘सामाजिक कानून के रूप में पीसीएमए तभी सफल होगा जब व्यापक सामाजिक ढांचे में इस समस्या का समाधान करने के लिए सभी हितधारक मिलकर प्रयास करेंगे और इसके लिए बहु-क्षेत्रीय समन्वय की आवश्यकता है।’’
शीर्ष अदालत ने कहा कि इसके लिए मामलों को दर्ज करने का तंत्र मजबूत करने, जन जागरूकता अभियानों के विस्तार और कानून प्रवर्तन के लिए प्रशिक्षण एवं क्षमता निर्माण में निवेश की आवश्यकता है।
उन्होंने कहा, ‘‘इन दिशा-निर्देशों के क्रियान्वयन का उद्देश्य संरक्षण से पहले रोकथाम और दंड से पहले संरक्षण को प्राथमिकता देना है। हम परिवारों और समुदायों पर अपराधीकरण के प्रभाव से परिचित हैं। पीसीएमए में दंडात्मक प्रावधानों का प्रभावी उपयोग सुनिश्चित करने के लिए यह आवश्यक है कि बाल विवाह और इसके कानूनी परिणामों के बारे में व्यापक जागरूकता हो।’’
हालांकि, उच्चतम न्यायालय ने स्पष्ट किया कि यह नहीं समझा जाना चाहिए कि अवैध कार्य करने वालों के खिलाफ मुकदमा चलाने को हतोत्साहित किया जाता है।
उसने साथ ही कहा कि कानून प्रवर्तन तंत्र को बाल विवाह को रोकने और निषिद्ध करने के लिए सर्वोत्तम प्रयास करने चाहिए तथा केवल अभियोजन पर ही ध्यान केंद्रित नहीं करना चाहिए।
यह निर्णय ‘सोसाइटी फॉर एनलाइटनमेंट एंड वॉलंटरी एक्शन’ द्वारा दायर जनहित याचिका पर सुनवाई के दौरान सुनाया गया। इस याचिका में बाल विवाह को रोकने के लिए कानून का प्रभावी कार्यान्वयन सुनिश्चित करने का अनुरोध किया गया है।
शीर्ष अदालत ने मजिस्ट्रेट को स्वप्रेरणा से कार्रवाई करने और "न्यायिक उपाय" शीर्षक के तहत निवारक आदेश जारी करने का अधिकार भी दिया।
बाल विवाह के मामलों में जानबूझकर अपने कर्तव्य की उपेक्षा करने वाले किसी भी लोक सेवक के खिलाफ सख्त अनुशासनात्मक और कानूनी कार्रवाई करने का निर्देश दिया गया।
यह फैसला बाल विवाह रोकने के लिए मजबूत प्रवर्तन तंत्र की मांग करने वाली एक जनहित याचिका पर आया।
भाषा सुरेश