उच्च न्यायालय ने दहेज-मृत्यु के मामले में आदेश को चुनौती देने वाली याचिका खारिज की
राजेंद्र खारी
- 08 Oct 2024, 02:07 PM
- Updated: 02:07 PM
प्रयागराज, आठ अक्टूबर (भाषा) इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने कहा है कि अगर बिना शादी किए एक महिला और पुरुष पति-पत्नी की तरह रह रहे हैं तो भी दहेज की मांग या दहेज-मृत्यु के अपराध में मुकदमा दर्ज हो सकता है।
यह टिप्पणी न्यायमूर्ति राजबीर सिंह ने प्रयागराज के सत्र न्यायालय के आदेश को चुनौती देने वाली एक याचिका खारिज करते हुए की। अधीनस्थ अदालत ने महिला की दहेज-मृत्यु के मामले में याचिकाकर्ता को रिहा करने की अर्जी खारिज कर दी थी।
मौजूदा याचिका में यह दलील दी गई थी कि अधीनस्थ अदालत का आदेश तथ्यों और कानून के विरुद्ध है, इसलिए यह खारिज किए जाने योग्य है।
याचिकाकर्ता के वकील ने कहा, ‘‘महिला का विवाह रोहित यादव नाम के एक व्यक्ति से हुआ था और ऐसा कोई साक्ष्य नहीं है कि महिला ने रोहित से तलाक लिया हो। वास्तव में महिला, याचिकाकर्ता के साथ रहने लगी थी और दोनों की शादी नहीं हुई थी।’’
वकील ने यह दलील भी दी कि रोहित के साथ शादी के एक साल भी नहीं बीते थे कि महिला ने याचिकाकर्ता के साथ रहना शुरू कर दिया, ऐसे में इन तथ्यों को देखते हुए यह नहीं कहा जा सकता कि महिला, याचिकाकर्ता की कानूनी तौर पर पत्नी थी। उन्होंने दलील दी, ‘‘इसलिए भारतीय दंड संहिता (आईपीसी) की धारा 304(बी) के तहत प्रथम दृष्टया कोई मामला नहीं बनता।’’
अदालत ने याचिका खारिज करते हुए कहा, ‘‘आईपीसी की धारा 304 (बी) और 498-ए के प्रावधान लागू होने के लिए यह साबित करना पर्याप्त है कि महिला और पुरुष एक समय पति-पत्नी की तरह रह रहे थे। मौजूदा मामले में यह मान भी लिया जाए कि महिला, कानूनी रूप से पत्नी नहीं थी लेकिन रिकॉर्ड में इस बारे में पर्याप्त साक्ष्य हैं कि याचिकाकर्ता और महिला, पति-पत्नी की तरह रह रहे थे।”
अपर शासकीय अधिवक्ता ने याचिका का यह कहते हुए विरोध किया कि प्राथमिकी में इस बात का स्पष्ट रूप से उल्लेख है कि शादी के बाद रोहित ने महिला को तलाक दे दिया था और इसके बाद याचिकाकर्ता के साथ महिला की शादी अदालत के जरिए हुई थी। आरोप है कि याचिकाकर्ता ने दहेज के लिए महिला का उत्पीड़न किया जिसके बाद महिला ने याचिकाकर्ता के घर पर खुदकुशी कर ली थी।
उन्होंने बताया कि महिला की याचिकाकर्ता के साथ शादी कानूनी रूप से थी या नहीं, यह तथ्यगत प्रश्न है और इसका परीक्षण मुकदमे की सुनवाई के दौरान ही हो सकता है।
अदालत ने कहा, “याचिकाकर्ता की यह दलील कि आईपीसी की धारा 304(बी) के प्रावधान लागू नहीं होते, इसमें कोई दम नहीं है। अधीनस्थ अदालत के आदेश पर गौर करने पर यह स्पष्ट होता है कि उसने इस मामले के सभी प्रासंगिक तथ्यों पर गौर किया और उचित कारण से रिहा करने का आवेदन खारिज किया।’’
भाषा राजेंद्र