बरी किए जाने के खिलाफ हर कोई यहां अपील दायर नहीं कर सकता: मालेगांव विस्फोट मामले में उच्च न्यायालय
शोभना मनीषा
- 16 Sep 2025, 12:42 PM
- Updated: 12:42 PM
मुंबई, 16 सितंबर (भाषा) बंबई उच्च न्यायालय ने मंगलवार को कहा कि 2008 के मालेगांव विस्फोट मामले में बरी किए जाने के आदेश के खिलाफ यहां हर कोई अपील दाखिल नहीं कर सकता। साथ ही उच्च न्यायालय ने इस बात का ब्योरा मांगा कि क्या पीड़ितों के परिवार के सदस्यों से मुकदमे में गवाह के तौर पर पूछताछ की गई थी।
मुख्य न्यायाधीश श्री चंद्रशेखर और न्यायमूर्ति गौतम अंखड की पीठ विस्फोट में जान गंवाने वाले छह लोगों के परिजनों द्वारा बरी किये जाने के फैसले के खिलाफ दायर अपील पर सुनवाई कर रही थी।
अपील में भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) की पूर्व सांसद प्रज्ञा सिंह ठाकुर और लेफ्टिनेंट कर्नल प्रसाद पुरोहित सहित मामले के सात आरोपियों को बरी करने के विशेष अदालत के फैसले को चुनौती दी गई है।
मंगलवार को उच्च न्यायालय की पीठ ने जानना चाहा कि क्या परिवार के सदस्यों से मुकदमे में गवाह के रूप में पूछताछ की गई थी।
परिवार के सदस्यों के वकील ने पीठ को बताया कि प्रथम अपीलकर्ता निसार अहमद, जिनके बेटे की विस्फोट में मौत हो गई थी, मुकदमे में गवाह नहीं थे। वकील ने कहा कि वह बुधवार को ब्योरा पेश करेंगे।
इस पर पीठ ने कहा कि अगर अपीलकर्ता का बेटा विस्फोट में मारा गया था तो उन्हें (निसार अहमद) गवाह होना चाहिए था।
पीठ ने कहा, ‘‘आपको (अपीलकर्ताओं को) बताना होगा कि वह गवाह थे या नहीं। हमें विवरण दें...।’’
अदालत मामले की अगली सुनवाई बुधवार को करेगी।
दरअसल पिछले हफ़्ते दायर अपील में दावा किया गया था कि दोषपूर्ण जांच या जांच में कुछ खामियां आरोपियों को बरी करने का आधार नहीं हो सकतीं। इसमें यह भी दलील दी गई थी कि (विस्फोट की) साज़िश गुप्त रूप से रची गई थी इसलिए इसका कोई प्रत्यक्ष प्रमाण नहीं हो सकता।
याचिकाकर्ताओं ने दावा किया कि विशेष एनआईए अदालत द्वारा 31 जुलाई को पारित आदेश गलत था इसलिए इसे रद्द किया जाना चाहिए। एनआईए अदालत ने सात आरोपियों को बरी करने का फैसला सुनाया था।
महाराष्ट्र के नासिक जिले में मुंबई से लगभग 200 किलोमीटर दूर स्थित मालेगांव कस्बे में 29 सितंबर, 2008 को, एक मस्जिद के पास एक मोटरसाइकिल पर बंधे विस्फोटक उपकरण में विस्फोट हो गया, जिसमें छह लोगों की मौत हो गई और 101 अन्य घायल हो गए।
अपील में कहा गया है कि निचली अदालत के न्यायाधीश को आपराधिक मुकदमे में "डाकिया या मूकदर्शक" की भूमिका नहीं निभानी चाहिए। इसमें आगे कहा गया है कि जब अभियोजन पक्ष तथ्य उजागर करने में विफल रहता है, तो निचली अदालत प्रश्न पूछ सकती है और/या गवाहों को तलब कर सकती है।
अपील में कहा गया है, "दुर्भाग्य से निचली अदालत ने केवल एक डाकघर की भूमिका निभाई और अभियुक्तों को लाभ पहुँचाने के लिए एक अपर्याप्त अभियोजन की अनुमति दी।"
इसमें राष्ट्रीय जाँच एजेंसी (एनआईए) द्वारा मामले की जाँच और मुकदमे के संचालन के तरीके पर भी चिंता जताई गई और अभियुक्तों को दोषी ठहराने की माँग की गई।
अपील में कहा गया है कि राज्य के आतंकवाद निरोधी दस्ते (एटीएस) ने सात लोगों को गिरफ्तार करके एक बड़ी साजिश का पर्दाफाश किया और तब से अल्पसंख्यक समुदाय की आबादी वाले इलाकों में कोई विस्फोट नहीं हुआ है।
इसने दावा किया कि एनआईए ने मामला अपने हाथ में लेने के बाद आरोपियों के खिलाफ आरोपों को कमजोर कर दिया।
विशेष अदालत ने अपने फैसले में कहा था कि केवल संदेह वास्तविक सबूत की जगह नहीं ले सकता और दोषसिद्धि के लिए कोई ठोस या विश्वसनीय सबूत नहीं है।
एनआईए अदालत की अध्यक्षता कर रहे विशेष न्यायाधीश ए.के. लाहोटी ने कहा था कि आरोपियों के खिलाफ कोई "विश्वसनीय और ठोस सबूत" नहीं है जो मामले को संदेह से परे साबित कर सके।
अभियोजन पक्ष का तर्क था कि यह विस्फोट सांप्रदायिक रूप से संवेदनशील मालेगांव शहर में मुस्लिम समुदाय को आतंकित करने के इरादे से दक्षिणपंथी चरमपंथियों द्वारा किया गया था।
एनआईए अदालत ने अपने फैसले में अभियोजन पक्ष के मामले और की गई जाँच में कई खामियों को उजागर किया था और कहा था कि आरोपी संदेह का लाभ पाने के हकदार हैं।
ठाकुर और पुरोहित के अलावा, आरोपियों में मेजर रमेश उपाध्याय (सेवानिवृत्त), अजय राहिरकर, सुधाकर द्विवेदी, सुधाकर चतुर्वेदी और समीर कुलकर्णी शामिल थे।
भाषा शोभना