फलस्तीनी महिलाएं, जिनकी तकदीर में लिखा है उजड़ते रहने का दर्द !
एपी पारुल नरेश
- 16 May 2025, 06:23 PM
- Updated: 06:23 PM
खान यूनिस (गाजा पट्टी), 16 मई (एपी) घालिया अबु मोतीर को 1948 में चार साल की उम्र में खान यूनिस में एक टेंट में शरण लेने के लिए मजबूर होना पड़ा था। उसके परिवार को फलस्तीनी क्षेत्र की तरफ बढ़ रहे इजराइली बलों से बचने के लिए इजराइल स्थित अपना घर छोड़कर भागना पड़ा था।
आज 77 साल बाद गाजा पट्टी में इजराइल बमबारी के बीच घालिया फिर एक टेंट में शरण लेने के लिए मजबूर हैं।
पश्चिम एशिया में रह रहे फलस्तीनियों ने बृहस्पतिवार को ‘नकबा’ की बरसी मनाई, जब 1948 के अरब-इजराइल युद्ध के दौरान इजराइली बलों ने फलस्तीनी बस्तियों में रह रहे लगभग सात लाख फलस्तीनियों को क्षेत्र से या तो जबरन बेदखल कर दिया था या वे खुद ही अपना घर-बार छोड़कर भाग गए थे।
घालिया की जिंदगी उस युद्ध से लेकर मौजूदा लड़ाई तक फलस्तीनियों के बार बार उजड़ने के दर्द को बयां करती है।
अक्टूबर 2023 में इजराइल में हमास के अप्रत्याशित हमले के बाद गाजा पट्टी में दोनों पक्षों के बीच युद्ध जारी है, जिसमें 53 हजार से ज्यादा लोग मारे जा चुके हैं, 23 लाख से अधिक लोग विस्थापित हो गए हैं और उन पर भुखमरी का खतरा भी मंडराने लगा है।
घालिया (81) ने गाजा पट्टी में अपने टेंट के बाहर मीडिया से बातचीत में कहा, “आज हम उस नकबा से भी बड़े नकबा का सामना कर रहे हैं, जो हमने 1948 में देखा था।” वह अपने बेटे-बेटियों और 45 नाति-पोतों के साथ इस टेंट में रह रही है।
उसने कहा, “हमारा जीवन दहशत के साये में गुजर रहा है। हमारे सिर के ऊपर दिन-रात मिसाइल और लड़ाकू विमान उड़ते रहते हैं। यह भी कोई जीना है। अगर हम मर जाते, तो कहीं ज्यादा बेहतर होता।”
गाजा पट्टी 1948 के नकबा के दौरान अस्तित्व में आई थी। लगभग दो लाख शरणार्थियों को इस संकरे तटीय क्षेत्र की तरफ खदेड़ दिया गया था। गाजा पट्टी की मौजूदा आबादी के 70 फीसदी से ज्यादा लोग इन शरणार्थियों के वंशज हैं।
घालिया को अपने पुश्तैनी गांव वाद हुनैन के बारे में ज्यादा याद नहीं है। वाद हुनैन तेल अवीव के दक्षिण-पूर्व में स्थित नींबू के पेड़ों से घिरा हुआ एक छोटा-सा गांव है।
इजराइली बलों के गांव में घुसने के बाद घालिया के माता-पिता उसे और उसके तीन भाइयों को लेकर गाजा पट्टी में खान यूनिस की तरफ भाग गए थे।
घालिया बताती हैं, “हमारे पास सिर्फ हमारे तन पर कपड़े थे। कोई पहचान पत्र या अन्य सामान नहीं था। हम गोलियों की तड़तड़ाहट के बीच भूमध्यसागरीय तट पर चल रहे थे। मेरे पिता हमारे आगे चल रहे थे, ताकि हमें गोलियों से बचा सकें। हम 75 किलोमीटर पैदल चलकर खान यूनिस पहुंचे, जहां शरणार्थियों के लिए ‘टेंट सिटी’ बनाई गई थी।”
उन्होंने बताया कि ‘टेंट सिटी’ में दो साल रहने के बाद उनका परिवार दक्षिण में स्थित राफा चला गया, जहां उन्होंने अपना घर बनाया।
घालिया के मुताबिक, 1950 के दशक की शुरुआत में उनके पिता की मौत हो गई। 1956 में जब इजराइली बलों ने मिस्र के सिनाई में दाखिल होने के लिए गाजा पर धावा बोला, तब उनका परिवार फिर मध्य गाजा भाग गया।
घालिया के अनुसार, 1967 के युद्ध के बाद के वर्षों में जब इजराइल ने गाजा और वेस्ट बैंक पर कब्जा कर लिया, तब उनकी मां और भाई जॉर्डन चले गए।
घालिया जिनकी उस समय तक शादी हो चुकी थी, वह अपने पति और बच्चों के साथ गाजा में रह गई।
घालिया ने कहा, “मैंने सारे युद्ध देखे हैं, लेकिन कोई भी इस लड़ाई जितना खतरनाक नहीं था।”
घालिया ने बताया कि एक महीने पहले जब इजराइली बलों ने गाजा पर हमला किया, तो उनका परिवार राफा चला गया। उन्होंने बताया कि फिलहाल उनका परिवार खान यूनिस के तट पर ‘मुवासी टेंट सिटी’ में रह रहा है।
घालिया के अनुसार, इजराइली हमले में उनका एक बेटा मारा गया, जिसके बाद उनकी तीन बेटियां और एक बेटा बचे हैं। उन्होंने बताया कि इजराइली हमले में उनके तीन नाति-पोते भी मारे गए।
अधिकांश फिलिस्तीनियों का कहना है कि वे गाजा नहीं छोड़ना चाहते। लेकिन इजरायली सेना द्वारा मचाई गई तबाही के चलते कुछ लोगों की सहनशीलता दम तोड़ने लगी है।
गाजा में फलस्तीनी गैर-सरकारी संगठन नेटवर्क के निदेशक अमजद शावा ने कहा, ‘‘मैं समझता हूं कि... यहां कोई विकल्प नहीं है। जिंदा रहने के लिए, आपको गाजा छोड़ना होगा।’’ हालांकि उन्होंने कहा कि वह कभी नहीं जाएंगे।
गाजा शहर में रहने वाली 21 वर्षीय नूर अबू मरियम अपने दादा-दादी की कहानियां सुनते हुए बड़ी हुई हैं, जिन्हें 1948 में इजरायली सेना ने वर्तमान इजरायली शहर अश्कलोन के बाहर स्थित उनके शहर से निकाल दिया था।
युद्ध की शुरुआत में ही उनके परिवार को गाजा शहर में अपने घर से भागने के लिए मजबूर होना पड़ा। वे इस साल की शुरुआत में दो महीने के युद्धविराम के दौरान वापस लौटे। अब उनका क्षेत्र इजरायली निकासी आदेशों के तहत है और उन्हें डर है कि उन्हें फिर से जाने के लिए मजबूर किया जाएगा।
अबू मरियम ने कहा कि अगर सीमा खुलती है तो उनका परिवार जाने के बारे में सोच रहा है।
दीर अल-बला में शरण लिए हुए 23 वर्षीय खेलौद अल-लाहम ने कहा कि वह रफाह में रहने पर “अडिग” है। वह कहती हैं,“यह हज़ारों सालों से हमारे पूर्वजों और दादाओं की भूमि है। इस पर सदियों से आक्रमण किया गया और कब्ज़ा किया गया। लेकिन क्या इसे इतनी आसानी से छोड़ना सही है?
लेकिन वह लौटी भी तो जाएंगी कहां?उसके शहर को जमींदोज कर दिया गया है। उसका पुश्तैनी घर भी।
एपी पारुल