संवैधानिक मूल्यों को अक्षुण्ण रखना सीजेआई संजीव खन्ना के कार्यकाल की विशिष्टता
सुरेश नेत्रपाल
- 13 May 2025, 07:04 PM
- Updated: 07:04 PM
(अतिरिक्त जानकारी के साथ)
(संजीव कुमार)
नयी दिल्ली, 13 मई (भाषा) भारत के प्रधान न्यायाधीश (सीजेआई) के तौर पर न्यायमूर्ति संजीव खन्ना का कार्यकाल भले ही संक्षिप्त रहा हो, लेकिन करीब छह माह के अपने कार्यकाल में उन्होंने धर्मनिरपेक्षता को बनाए रखने और सरकारी नौकरियों में भ्रष्टाचार को समाप्त करने के महत्वपूर्ण फैसले के साथ न्यायिक पटल पर एक अमिट छाप छोड़ी।
न्यायमूर्ति खन्ना मंगलवार को सेवानिवृत्त हो गए।
कुछ लोगों का मानना है कि सीजेआई अपने चाचा न्यायमूर्ति एच. आर. खन्ना की उम्मीदों पर खरे उतरे और न्यायिक मूल्यों की उनकी विरासत को भी सहेजा।
न्यायमूर्ति एच आर खन्ना आपातकाल के दौरान ‘‘एडीएम जबलपुर’’ मामले में फैसला देने वाली पीठ के एक मात्र सदस्य थे, जिन्होंने असहमति का फैसला लिखा था, जिसकी कीमत उन्हें चुकानी पड़ी थी। तत्कालीन केंद्र सरकार ने उन्हें निलंबित कर दिया था और न्यायमूर्ति एम.एच. बेग को प्रधान न्यायाधीश बनाया था।
न्यायमूर्ति संजीव खन्ना ने भी एक अलग सोच रखने वाले व्यक्ति के रूप में कुछ अभूतपूर्व फैसले लिए।
उच्चतम न्यायालय के न्यायाधीशों को अपनी संपत्ति उजागर करने का निर्देश देना उनके कुछ महत्वपूर्ण दिशानिर्देशों में से एक था। एक मौजूदा न्यायाधीश के आधिकारिक आवास से नकदी मिलने से उत्पन्न विवाद के बाद उन्होंने जांच की अनुमति दी।
न्यायाधीशों की नियुक्तियों पर कॉलेजियम रिकॉर्ड को सार्वजनिक करने के उनके एक और अनसुने फैसले ने सभी को आश्चर्यचकित कर दिया।
न्यायमूर्ति खन्ना ने अपनी सेवानिवृत्ति से कुछ दिन पहले भाजपा सांसद निशिकांत दुबे के उस बयान को लेकर जारी राजनीतिक बहस को भी समाप्त कर दिया, जिसमें उन्होंने (दुबे ने) कहा था कि देश में ‘‘गृहयुद्ध’’ के लिए सीजेआई जिम्मेदार हैं।
सीजेआई ने दुबे को करारा जवाब देते हुए कहा कि संविधान सर्वोच्च है।
यद्यपि न्यायमूर्ति खन्ना ने भाजपा सांसद के खिलाफ अवमानना की कार्रवाई नहीं की, लेकिन उन्होंने दुबे को पाठ जरूर पढ़ाया। भाजपा नेता पर शीर्ष अदालत के अधिकारों को कमतर करने और इसे बदनाम करने का आरोप लगाया गया था।
उन्होंने कहा, ‘‘यह संविधान ही है, जो हम सभी से ऊपर है। संविधान ही लोकतंत्र के तीनों अंगों (कार्यपालिका, विधायिका एवं न्यायपालिका) में निहित शक्तियों की सीमा तय करता है और प्रतिबंध भी लगाता है। संविधान ने न्यायपालिका को न्यायिक समीक्षा की शक्ति प्रदान की है।’’
सीजेआई खन्ना ने 11 नवंबर, 2024 को 51वें सीजेआई के रूप में शपथ ली और जब उनके समक्ष कानूनी चुनौतियां एवं राजनीतिक रूप से प्रतिकूल परिस्थितियां आईं तो वह संवैधानिक मूल्यों की रक्षा के लिए उठ खड़े हुए।
उन्होंने सीजेआई बनने के तुरंत बाद एक ऐतिहासिक फैसला सुनाया और संविधान में 1976 के उस संशोधन को चुनौती देने वाली याचिका खारिज कर दी, जिसके तहत प्रस्तावना में ‘‘समाजवादी’’, ‘‘धर्मनिरपेक्ष’’ और ‘‘अखंडता’’ शब्द जोड़े गए थे। उन्होंने कहा कि संशोधन के लिए संसद को प्रदत्त शक्ति के दायरे में संविधान की प्रस्तावना भी आती है।
उन्होंने कहा कि ‘‘समाजवादी’’ और ‘‘धर्मनिरपेक्ष’’ जैसे शब्द प्रस्तावना के अभिन्न अंग हैं और इस प्रकार याचिका सवाल के घेरे में आती है।
सरकारी नौकरियों में भ्रष्टाचार को बिलकुल न सहने की नीति को कायम रखते हुए उनकी अध्यक्षता वाली पीठ ने चयन प्रक्रिया में अनियमितताओं के कारण पश्चिम बंगाल के स्कूलों में 25,000 से अधिक शिक्षकों और गैर-शिक्षण कर्मचारियों की नियुक्तियों को रद्द कर दिया।
हालांकि, उन्होंने इस मामले में मानवीय दृष्टिकोण अपनाते हुए सामूहिक तौर पर नियुक्तियों को रद्द किए जाने के कारण स्कूलों पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ने की राज्य की दलील पर ध्यान दिया और नयी भर्ती पूरी करने की शर्त के साथ बेदाग शिक्षकों को 31 दिसंबर, 2025 तक सेवा जारी रखने की अनुमति दी।
सीजेआई ने वक्फ संशोधन अधिनियम को चुनौती देने वाली याचिकाओं पर भी सुनवाई की और अपनी पीठ की टिप्पणियों तथा प्रश्नों के माध्यम से पूर्ववर्ती कानून में प्रमुख कानूनी बदलावों को रेखांकित किया।
इस मामले में केंद्र ने याचिकाओं पर 1,000 से अधिक पृष्ठों का जवाबी हलफनामा दाखिल किया है।
व्यापक सुनवाई के बाद सीजेआई खन्ना ने बाद में मामले को अपने उत्तराधिकारी न्यायमूर्ति बी आर गवई की पीठ को सौंप दिया।
दिल्ली उच्च न्यायालय में पदोन्नत होने से पहले तीसरी पीढ़ी के वकील न्यायमूर्ति संजीव खन्ना ने लंबित मामलों को कम करने और न्याय प्रदान करने में तेजी लाने पर ध्यान केंद्रित किया।
न्यायमूर्ति खन्ना का जन्म 14 मई, 1960 को हुआ था और उन्होंने 1983 में दिल्ली बार काउंसिल में अधिवक्ता के रूप में नामांकित होने से पहले दिल्ली विश्वविद्यालय के कैंपस लॉ सेंटर में कानून की पढ़ाई की थी।
एक वकील के रूप में, उन्होंने तीस हजारी परिसर में जिला अदालतों में प्रैक्टिस की और बाद में वह दिल्ली उच्च न्यायालय में वकालत करने लगे।
भाषा सुरेश