हरित ऊर्जा या अस्तित्व? राजस्थान के जंगल-आश्रित समुदाय दुविधा में
देवेंद्र प्रशांत रंजन
- 11 May 2025, 05:57 PM
- Updated: 05:57 PM
(गौरव सैनी)
बारां (राजस्थान), 11 मई (भाषा) राजस्थान के बारां जिले में पारिस्थितिकी दृष्टि से समृद्ध शाहबाद जंगल की सीमा पर स्थित मूंडियार गांव में एक छोटे से मंदिर में 26 वर्षीय रवि सहरिया ग्रामीणों के एक समूह के बीच चुपचाप बैठे थे।
उनके जैसे आदिवासी परिवारों के जीवन के लिए महत्वपूर्ण जंगल अब खतरे में है, क्योंकि इसके 408 हेक्टेयर क्षेत्र को एक विशाल पंप-स्टोरेज परियोजना के लिए बदले जाने का प्रस्ताव है।
मंदिर में आयोजित बैठक में लगभग 30 लोगों ने हिस्सा लिया। यह बैठक ‘ग्रीनको एनर्जीज प्राइवेट लिमिटेड’ द्वारा बनाए जा रहे 1,800 मेगावाट की जलविद्युत परियोजना का विरोध करने के लिए बुलाई गई थी। जबकि केवल तीन गांव कलौनी, मुंगावली और बैंत आधिकारिक तौर पर भूमि अधिग्रहण के लिए सूचीबद्ध हैं। परियोजना आस-पास के कम से कम सात गांवों को प्रभावित करती है, जहां सैकड़ों वन-निर्भर आदिवासी और दलित परिवार रहते हैं।
इस परियोजना में कुल 624 हेक्टेयर क्षेत्र में फैले दो बड़े जलाशय शामिल हैं।
मुंगावली गांव के निकट कुनो नदी से पानी लिया जाएगा। हालांकि इस परियोजना से स्वच्छ ऊर्जा, विकास और रोजगार का वादा किया गया है, लेकिन स्थानीय लोगों को डर है कि इससे उनकी जीवनशैली नष्ट हो सकती है।
मूंडियार में लगभग 2,500 निवासी हैं, जिनमें लगभग 400 सहरिया शामिल हैं, जो एक विशेष रूप से कमजोर जनजातीय समूह (पीवीटीजी) है। पीढ़ियों से रवि जैसे परिवार महुआ और आंवला जैसी वन उपज इकट्ठा करके और शाहबाद के जंगल में मवेशी चराकर अपना गुजारा करते रहे हैं।
रवि ने कहा, ‘‘मैं हर साल लगभग 50,000 रुपए कमाता हूं। इसमें से 40,000 रुपए जंगल से आने वाली उपज बेचने से मिलते हैं। बाकी की कमाई सत्र के दौरान चने की फसल से होती है। हम अपने बच्चों की स्कूल फीस पर ही 15,000 रुपए खर्च कर देते हैं।’’
हाल तक उनका सात सदस्यीय परिवार झोपड़ी में रहता था। अब उनके पास प्रधानमंत्री आवास योजना के तहत बना दो कमरों का छोटा सा घर है। उनके पास इलेक्ट्रॉनिक सामान के तौर पर सिर्फ एक मोबाइल फोन है।
रवि ने कहा, ‘‘यदि जंगल चला गया तो हम भी चले जाएंगे। मुझे दिहाड़ी मजदूरी का काम ढूंढने के लिए शहर जाना पड़ेगा।’’
रवि के पास जंगल के निकट पांच बीघा जमीन है। उन्होंने कहा, ‘‘मेरी जमीन अब दलालों द्वारा खरीदे गए प्लॉट से घिरी हुई है। हम सिर्फ परिवार के लिए ही गेहूं उगाते थे। अब मेरे पास कोई रास्ता नहीं है। कोई मुझे वहां से गुजरने नहीं देगा। मुझे मजबूरी में अपनी जमीन बेचनी पड़ेगी।’’
इस बीच कंपनी का दावा है कि मूंडियार से कोई जमीन नहीं ली जा रही है। लेकिन ग्रामीणों का कहना है कि दलाल मौके की ताक में आदिवासियों की जमीन सस्ते दामों पर खरीद रहे हैं और बाद में उसे ऊंचे दामों पर बेच रहे हैं।
बारां के कलेक्टर रोहिताश्व सिंह तोमर का कहना है कि उन्हें कंपनी की ओर से कोई भूमि अधिग्रहण प्रस्ताव नहीं मिला है और न ही किसी आदिवासी भूमि हस्तांतरण की अनुमति दी गई है।
कलेक्टर ने कहा कि वन अधिकारों की मान्यता एक ‘‘गतिशील प्रक्रिया’’ है और वह जांच-पड़ताल करेंगे कि क्या प्रभावित गांवों से कोई दावा अभी भी लंबित है।
पिछले साल सितंबर में ‘पीटीआई’ की एक खबर के अनुसार, बारां के शाहबाद-किशनगंज इलाके में 170 से अधिक कुपोषित बच्चे पाए गए थे। इनमें से कई बच्चे मूंडियार और कलौनी जैसे गांवों के थे।
कलौनी के ग्राम पंचायत सदस्य बृजेश कुमार का कहना है कि इस जंगल के बिना शाहबाद दूसरा जैसलमेर बन जाएगा। उन्होंने कहा, ‘‘यह हमें जीवित रखता है। अगर यह चला गया तो हम भी चले जाएंगे।’’
वन अधिकारी राजेंद्र प्रसाद मेघवाल ने कहा कि उनके विभाग को कोई शिकायत नहीं मिली है, लेकिन यदि कोई शिकायत दर्ज होती है तो वे जांच करेंगे।
भाषा
देवेंद्र प्रशांत