अदालतें मध्यस्थता फैसलों को संशोधित कर सकती हैं : उच्चतम न्यायालय
आशीष नेत्रपाल
- 30 Apr 2025, 03:58 PM
- Updated: 03:58 PM
नयी दिल्ली, 30 अप्रैल (भाषा) उच्चतम न्यायालय ने बुधवार को एक महत्वपूर्ण फैसले में कहा कि अदालतें 1996 के मध्यस्थता और सुलह कानून के तहत मध्यस्थता फैसलों को संशोधित कर सकती हैं।
प्रधान न्यायाधीश संजीव खन्ना, न्यायमूर्ति बी आर गवई, न्यायमूर्ति संजय कुमार और न्यायमूर्ति ऑगस्टीन जॉर्ज मसीह ने एक के मुकाबले चार के बहुमत से फैसला सुनाते हुए कहा कि कुछ परिस्थितियों में मध्यस्थता और सुलह अधिनियम, 1996 के प्रावधानों का इस्तेमाल करके मध्यस्थता निर्णय को संशोधित किया जा सकता है।
यह फैसला वाणिज्यिक विवादों में घरेलू और अंतरराष्ट्रीय मध्यस्थता फैसलों को प्रभावित करेगा।
हालांकि, फैसला सुनाते हुए, प्रधान न्यायाधीश ने अदालतों को मध्यस्थता फैसलों को संशोधित करने में ‘‘सावधानी’’ बरतने का आदेश दिया।
उन्होंने कहा, ‘‘संविधान के अनुच्छेद 142 के तहत उच्चतम न्यायालय की विशेष शक्तियों का इस्तेमाल फैसलों में बदलाव के लिए किया जा सकता है। लेकिन इस शक्ति का इस्तेमाल संविधान के दायरे में बहुत सावधानी से किया जाना चाहिए।’’
हालांकि, न्यायमूर्ति के वी विश्वनाथन ने असहमति जताते हुए कहा कि अदालतें मध्यस्थता के फैसलों में बदलाव नहीं कर सकतीं।
बहुमत के फैसले में उन परिस्थितियों का उल्लेख किया गया है जिनमें न्यायालयों द्वारा मध्यस्थता संबंधी निर्णयों को संशोधित करने के ‘‘सीमित अधिकार’’ का प्रयोग किया जा सकता है।
प्रधान न्यायाधीश ने कहा कि इस अधिकार का प्रयोग किसी भी लिपिकीय, गणना या मुद्रण संबंधी त्रुटि को सुधारने के लिए किया जा सकता है, जो रिकॉर्ड में गलत प्रतीत होती है।
बहुमत के फैसले में कहा गया कि इस अधिकार का प्रयोग ‘‘कुछ परिस्थितियों में निर्णय के बाद के हित को संशोधित करने’’ के लिए किया जा सकता है।
संविधान का अनुच्छेद 142 उच्चतम न्यायालय को उसके समक्ष लंबित किसी भी मामले या मामले में ‘‘पूर्ण न्याय करने’’ के लिए आवश्यक कोई भी आदेश पारित करने का अधिकार देता है।
यह विवेकाधीन शक्ति न्यायालय को सख्त कानूनी आवश्यकताओं से आगे जाकर उन स्थितियों में न्याय सुनिश्चित करने की अनुमति देती है जहां मौजूदा कानून अपर्याप्त या अपूर्ण हो सकते हैं।
अदालत ने तीन दिन तक पक्षों की सुनवाई के बाद 19 फरवरी को कानूनी मुद्दे पर अपना फैसला सुरक्षित रख लिया था।
इस मामले में अंतिम सुनवाई 13 फरवरी को शुरू हुई थी, जब 23 जनवरी को तीन न्यायाधीशों की पीठ ने यह मामला उसके समक्ष भेजा था।
सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता के अलावा वरिष्ठ अधिवक्ता अरविंद दातार, डेरियस खंबाटा, शेखर नाफड़े, रितिन राय, सौरभ कृपाल और गौरब बनर्जी ने मामले में दलीलें रखी थीं।
दातार के नेतृत्व में वकीलों ने दलीलें दी कि न्यायालयों को मध्यस्थता और सुलह अधिनियम, 1996 की धारा 34 के तहत कुछ आधार पर मध्यस्थता के फैसलों को रद्द करने का अधिकार है, वे इसमें संशोधन भी कर सकते हैं, क्योंकि उनके अधिकारों में कुछ हद तक विवेकाधिकार भी शामिल हैं।
वकीलों के एक अन्य समूह ने तर्क दिया कि ‘‘संशोधित’’ शब्द, जो कि कानून में नहीं था, को गैर-मौजूद शक्तियों के रूप में नहीं देखा जा सकता।
मध्यस्थता और सुलह अधिनियम के तहत मध्यस्थता विवाद समाधान का एक वैकल्पिक तरीका है और यह न्यायाधिकरणों द्वारा दिए गए निर्णयों में हस्तक्षेप करने में अदालतों की भूमिका को न्यूनतम करता है।
अधिनियम की धारा 34 प्रक्रियागत अनियमितताओं, सार्वजनिक नीति के उल्लंघन, या अधिकार क्षेत्र की कमी जैसे सीमित आधारों पर मध्यस्थता फैसलों को रद्द करने का प्रावधान करती है। वहीं, धारा 37 मध्यस्थता से संबंधित आदेशों के विरुद्ध अपील को नियंत्रित करती है, जिसमें फैसले को रद्द करने से इनकार करने वाले आदेश भी शामिल हैं।
धारा 34 की तरह इसका उद्देश्य भी न्यायिक हस्तक्षेप को न्यूनतम करना है तथा निगरानी की आवश्यकता वाले असाधारण मामलों पर विचार करना है।
पीठ ने पूर्व में कहा था, ‘‘उपर्युक्त प्रश्न पर गौर करते समय, न्यायालय अदालत की शक्ति की रूपरेखा और दायरे की भी जांच करेगा...और यदि संशोधन का अधिकार मौजूद है, तो उसका किस हद तक प्रयोग किया जा सकता है।’’
मामला गायत्री बालासामी बनाम आईएसजी नोवासॉफ्ट टेक्नोलॉजीज लिमिटेड से उत्पन्न हुआ।
न्यायालयों ने पारंपरिक रूप से इस धारा की संकीर्ण व्याख्या की है तथा मध्यस्थता के अंतिम निर्णय और दक्षता के सिद्धांतों को कायम रखने के लिए आदेश के गुण-दोष की समीक्षा से परहेज किया है।
फरवरी 2024 में, न्यायमूर्ति दीपांकर दत्ता, न्यायमूर्ति के वी विश्वनाथन और न्यायमूर्ति संदीप मेहता की पीठ ने कुछ प्रश्न तैयार किए और मामले को विचार के लिए प्रधान न्यायाधीश के पास भेज दिया।
भाषा आशीष