दिल्ली उच्च न्यायालय ने द्रौपदी का हवाला दिया, व्यभिचार मामले में व्यक्ति को बरी किया
नेत्रपाल दिलीप
- 18 Apr 2025, 05:37 PM
- Updated: 05:37 PM
नयी दिल्ली, 18 अप्रैल (भाषा) दिल्ली उच्च न्यायालय ने एक व्यक्ति को व्यभिचार के मामले में आरोपमुक्त कर दिया है। यह मामला उस महिला के पति ने दायर किया था, जिसके साथ व्यक्ति के कथित रूप से संबंध थे। अदालत ने कहा कि महिला को पति की संपत्ति मानने का मामला महाभारत में द्रौपदी के मामले में अच्छी तरह से दर्ज है।
न्यायमूर्ति नीना बंसल कृष्णा ने भारतीय दंड संहिता की धारा 497 के तहत व्यभिचार के अपराध को असंवैधानिक बताते हुए उच्चतम न्यायालय के फैसले पर विस्तार से चर्चा की और कहा कि ‘‘पुराने कानून’’ में यह प्रावधान था कि संबंधित अपराध केवल विवाहित महिला के पति की सहमति या मिलीभगत के अभाव में ही माना जाता है।
अदालत के 17 अप्रैल के फैसले में कहा गया, ‘‘महिला को पति की संपत्ति माना जाना और इसके विनाशकारी परिणाम महाभारत में अच्छी तरह से वर्णित हैं, जिसमें द्रौपदी को जुए के खेल में किसी और ने नहीं, बल्कि उसके अपने पति युधिष्ठिर ने दांव पर लगा दिया था, जहां अन्य चार भाई मूकदर्शक बने रहे और द्रौपदी के पास अपनी गरिमा के वास्ते विरोध करने के लिए कोई आवाज नहीं थी।’’
इसने कहा, ‘‘जैसा कि हुआ, जुए के खेल में हार के बाद महाभारत का युद्ध हुआ, जिसमें बड़े पैमाने पर लोगों की जान चली गई और परिवार के कई सदस्य मारे गए। एक महिला को एक संपत्ति के रूप में मानने की मूर्खता के परिणाम को प्रदर्शित करने के लिए ऐसे उदाहरण मौजूद होने के बावजूद, हमारे समाज की स्त्री-द्वेषी मानसिकता को यह तभी समझ में आया, जब उच्चतम न्यायालय ने भादंसं की धारा 497 को असंवैधानिक घोषित कर दिया।’’
वर्तमान मामले में पति ने आरोप लगाया कि उसकी पत्नी याचिकाकर्ता के साथ व्यभिचार संबंध में थी और वे दूसरे शहर चले गए, जहां वे एक होटल में साथ रुके और पति की सहमति के बिना उनके बीच यौन संबंध बने।
मजिस्ट्रेट अदालत ने याचिकाकर्ता को आरोपमुक्त कर दिया था, जबकि सत्र अदालत ने इसे निरस्त करते हुए व्यक्ति को समन भेजा था।
शीर्ष अदालत के फैसले पर विचार करते हुए उच्च न्यायालय ने कहा कि महिला के पति द्वारा दायर शिकायत रद्द की जानी चाहिए।
मामले में व्यक्ति को आरोपमुक्त करते हुए पीठ ने कहा, ‘‘इसलिए यह स्पष्ट है कि पुरातन कानून का उद्देश्य काफी पहले समाप्त हो चुका है और आज की संवैधानिक नैतिकता के अनुरूप नहीं है, क्योंकि जिस उद्देश्य से इसे बनाया गया था, वह अब स्पष्ट रूप से मनमाना हो गया है, बहुत पहले ही इसका औचित्य खत्म हो चुका है और आज के समय में यह पूरी तरह से तर्कहीन हो गया है।’’
भाषा नेत्रपाल