क्षयरोग से जुड़े सामाजिक कलंक को मिटाने के लिए कार्यरत आशा कार्यकर्ता
वैभव नरेश
- 09 Mar 2025, 04:39 PM
- Updated: 04:39 PM
नयी दिल्ली, आठ मार्च (भाषा) उत्तर प्रदेश के सिद्धार्थनगर में 28 वर्षीय आशा कार्यकर्ता रंजना चौधरी मधुबेनिया गांव में हर दिन छह से सात घरों में जाती हैं, जिसका उद्देश्य क्षयरोग (टीबी) से जुड़े कलंक को मिटाना और ग्रामीणों को इस बीमारी की जांच करवाने के लिए प्रोत्साहित करना है।
अब भी क्षयरोग से सामाजिक कलंक के जुड़ा होने की वजह से लोग इस घातक संक्रामक बीमारी की जांच के लिए आसानी से आगे नहीं आते।
सत्तर वर्षीय विमला देवी (बदला हुआ नाम) विभिन्न बीमारियों की जांच के लिए एक स्वास्थ्य शिविर में आई थीं। जब उनसे पूछा गया कि क्या वह टीबी की जांच के लिए आई हैं, तो उन्होंने अनिच्छा प्रकट की।
उन्होंने झुंझलाहट के साथ कहा, ‘‘नहीं नहीं, मुझे टीबी क्यों होगी?’’
चौधरी और देश के दूरदराज के क्षेत्रों में कार्यरत लाखों आशा कार्यकर्ताओं को लोगों को टीबी जांच शिविरों में आने के लिए मनाने की कठिन चुनौती का सामना करना पड़ता है और वे इस रोग के उन्मूलन के लिए चल रहे अखिल भारतीय 100-दिवसीय सघन अभियान के तहत संवेदनशील लोगों को ऐसे शिविरों में लाने का प्रयास कर रही हैं।
देश से तपेदिक या टीबी को खत्म करने के प्रयासों में तेजी लाने के उद्देश्य से, सरकार मधुमेह रोगियों, धूम्रपान करने वालों, शराब पीने वालों, कुपोषित लोगों, एचआईवी से पीड़ित लोगों, टीबी या कोविड के इतिहास वाले व्यक्तियों, बुजुर्गों और टीबी रोगियों के घरेलू संपर्कों में आने वाले लोगों जैसी संवेदनशील आबादी की सक्रिय रूप से जांच और परीक्षण कर रही है।
पिछले साल दिसंबर में 100-दिवसीय अभियान के आरंभ के बाद से, टीबी कार्यक्रम में देश भर में 6.1 लाख से अधिक टीबी रोगियों को अधिसूचित किया गया है जिनमें 455 जिलों से 4.3 लाख रोगियों में रोग का पता किया गया।
चौधरी ने कहा, ‘‘अक्सर हम लोगों को यह नहीं बताते हैं कि यह एक टीबी स्क्रीनिंग शिविर है और उन्हें यह कहकर इसमें शामिल होने के लिए कहते हैं कि पास में एक निःशुल्क स्वास्थ्य जांच शिविर आयोजित किया जा रहा है। यहां तक कि अगर तपेदिक का पता भी चल जाता है, तो लोग अलगाव और सामाजिक कलंक के डर से इसे छिपाना पसंद करते हैं।’’
एक अन्य आशा कार्यकर्ता सुनीता ने कहा, ‘‘चूंकि टीबी एक संक्रामक बीमारी है, इसलिए इस बीमारी को लेकर कई तरह की गलत धारणाएं समाज में व्याप्त हैं। खासकर अगर किसी महिला को यह बीमारी हो जाती है, तो परिवार इसे अभिशाप मानता है और लड़की के अविवाहित रहने के डर से इसे छिपाने की कोशिश करता है।’’
उन्होंने कहा, ‘‘कई परिवार इसे गुप्त रखने की कोशिश भी करते हैं, क्योंकि उन्हें लगता है कि इससे उन्हें समाज से बहिष्कृत कर दिया जाएगा।’’
डॉ. शैलेंद्र भटनागर ने कहा कि टीबी इस तरह की बीमारी है कि यदि आपको सही समय पर सही इलाज नहीं मिलता है, तो आप परिवार के अन्य सदस्यों और पड़ोसियों को भी संक्रमित कर सकते हैं।
उन्होंने बताया, ‘‘अगर टीबी के मरीज का इलाज नहीं किया जाता है, तो वह एक साल में 15 लोगों को संक्रमित कर सकता है। इसी तरह अगर अगले साल इन नए 15 मरीजों का इलाज नहीं किया जाता है, तो यह आंकड़ा 225 हो जाता है और इसी तरह यह सिलसिला आगे भी जारी रह सकता है।’’
उन्होंने कहा कि जैसे ही किसी को कोई लक्षण दिखे, उसे तुरंत जांच करानी चाहिए।
भाषा वैभव