कई ऐतिहासिक फैसलों का हिस्सा रहे न्यायमूर्ति संजीव खन्ना ने 51वें सीजेआई के रूप में शपथ ली
प्रशांत मनीषा
- 11 Nov 2024, 04:15 PM
- Updated: 04:15 PM
नयी दिल्ली, 11 नवंबर (भाषा) भारत के 51वें प्रधान न्यायाधीश के तौर पर सोमवार को शपथ लेने वाले न्यायमूर्ति संजीव खन्ना ने ईवीएम की शुचिता को बरकरार रखने, अनुच्छेद 370 को हटाने, चुनावी बॉण्ड योजना को खत्म करने और दिल्ली के पूर्व मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल को अंतरिम जमानत देने समेत कई ऐतिहासिक फैसले सुनाए हैं।
दिल्ली के एक प्रतिष्ठित परिवार से ताल्लुक रखने वाले न्यायमूर्ति खन्ना, दिल्ली उच्च न्यायालय के पूर्व न्यायाधीश न्यायमूर्ति देव राज खन्ना के पुत्र और उच्चतम न्यायालय के दिवंगत पूर्व न्यायाधीश एच.आर. खन्ना के भतीजे हैं।
दिल्ली उच्च न्यायालय में पदोन्नत होने से पहले तीसरी पीढ़ी के वकील रहे 64 वर्षीय न्यायमूर्ति खन्ना का लक्ष्य लंबित मामलों को कम करना और न्याय प्रदान करने में तेजी लाना है।
पूर्व प्रधान न्यायाधीश डी.वाई. चंद्रचूड़ ने 17 अक्टूबर को उन्हें अपना उत्तराधिकारी नियुक्त किया था और सोमवार को उन्होंने भारत के प्रधान न्यायाधीश (सीजेआई) के रूप में शपथ ली। न्यायपालिका के प्रमुख के रूप में छह महीने से अधिक समय तक सेवा देने के बाद न्यायमूर्ति खन्ना 13 मई, 2025 को सेवानिवृत्त होंगे।
उच्चतम न्यायालय में न्यायमूर्ति खन्ना के कुछ उल्लेखनीय निर्णयों में चुनावों में इलेक्ट्रॉनिक वोटिंग मशीनों (ईवीएम) के उपयोग को बरकरार रखना शामिल है, जिसमें कहा गया है कि ये उपकरण सुरक्षित हैं तथा बूथ कैप्चरिंग और फर्जी मतदान को समाप्त करते हैं।
न्यायमूर्ति खन्ना की अध्यक्षता वाली पीठ ने 26 अप्रैल को ईवीएम में हेरफेर के संदेह को “निराधार” करार दिया था और पुरानी मतपत्र प्रणाली को वापस लाने की मांग खारिज कर दी थी।
वह पांच न्यायाधीशों की उस पीठ का भी हिस्सा थे जिसने राजनीतिक दलों को वित्तपोषित करने वाली चुनावी बॉण्ड योजना को असंवैधानिक घोषित किया था।
न्यायमूर्ति खन्ना पांच न्यायाधीशों की उस पीठ का हिस्सा थे, जिसने तत्कालीन जम्मू-कश्मीर राज्य को विशेष दर्जा देने वाले संविधान के अनुच्छेद 370 को निरस्त करने के केंद्र के 2019 के फैसले को बरकरार रखा था।
यह न्यायमूर्ति खन्ना की अध्यक्षता वाली पीठ ही थी, जिसने पहली बार दिल्ली के तत्कालीन मुख्यमंत्री केजरीवाल को लोकसभा चुनाव में प्रचार करने के लिए आबकारी नीति मामले में अंतरिम जमानत दी थी।
वह 2021 में उस पीठ का हिस्सा थे, जिसने फ्रैंकलिन टेम्पलटन ट्रस्टी सर्विसेज प्राइवेट लिमिटेड की योजनाओं को बंद करने से संबंधित एक मामले में म्यूचुअल फंड योजनाओं को खत्म करने के लिए ई-वोटिंग प्रक्रिया की वैधता को बरकरार रखा था।
समाचार प्रस्तोता अमीश देवगन से संबंधित एक मामले में, न्यायमूर्ति खन्ना, जो एक पीठ का हिस्सा थे, ने कहा था कि भाषण और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता “अनुच्छेद 21 (जीवन और व्यक्तिगत स्वतंत्रता के अधिकार) द्वारा गारंटीकृत मौलिक अधिकार को हराने के लिए इस्तेमाल नहीं की जा सकती है क्योंकि अगर कोई भाषण के अधिकार का दावा करता है, तो दूसरों के पास उसे सुनने या सुनने से इनकार करने का अधिकार है”।
पीठ ने पत्रकार के खिलाफ दर्ज प्राथमिकी को रद्द करने से इनकार कर दिया था, लेकिन जांच में सहयोग करने की शर्त पर उन्हें गिरफ्तारी से अंतरिम संरक्षण प्रदान किया था।
उनकी पदोन्नति को लेकर उठे बड़े विवाद को नजरअंदाज करते हुए, जिसके कारण कई न्यायाधीशों की वरिष्ठता खत्म हो गई थी, सरकार ने शीर्ष अदालत के कॉलेजियम की सिफारिश के अनुरूप जनवरी 2019 में न्यायमूर्ति खन्ना को सर्वोच्च न्यायालय में नियुक्त किया था।
भारतीय विधिज्ञ परिषद (बीसीआई) ने तब उनकी नियुक्ति को “सनकभरा और मनमाना” कदम करार देते हुए कहा था कि इससे वरिष्ठता में उनसे आगे रहे न्यायाधीश असहज महसूस करेंगे और उनका मनोबल गिरेगा।
वकीलों की सर्वोच्च संस्था बीसीआई ने कहा था कि कॉलेजियम के फैसले को बार और आम आदमी “अन्यायपूर्ण और अनुचित” मानते हैं।
बीसीआई के अध्यक्ष मनन कुमार मिश्रा ने तब एक बयान में कहा था कि देश के कई वरिष्ठ न्यायाधीशों और मुख्य न्यायाधीशों की अनदेखी को लोग बर्दाश्त नहीं कर सकते।
बयान में कहा गया था, “हमें न्यायमूर्ति खन्ना से कोई शिकायत नहीं है। लेकिन उन्हें अपनी बारी का इंतजार करना चाहिए। देश के कई मुख्य न्यायाधीशों और वरिष्ठ न्यायाधीशों की योग्यता और वरिष्ठता को नजरअंदाज करके उन्हें पदोन्नत करने की कोई हड़बड़ी नहीं है।”
उच्चतम न्यायालय के तत्कालीन न्यायाधीश न्यायमूर्ति संजय किशन कौल ने भी तत्कालीन प्रधान न्यायाधीश रंजन गोगोई और कॉलेजियम के साथी न्यायाधीशों को राजस्थान और दिल्ली उच्च न्यायालयों के मुख्य न्यायाधीशों क्रमशः प्रदीप नंदराजोग और राजेंद्र मेनन की वरिष्ठता की अनदेखी करने के लिए एक नोट लिखा था।
सूत्रों ने तब कहा था कि न्यायमूर्ति कौल का मानना था कि यदि दो मुख्य न्यायाधीशों, जो न्यायमूर्ति खन्ना से वरिष्ठता सूची में ऊपर हैं, को सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीश के रूप में पदोन्नत करने से वंचित रखा गया तो गलत संकेत जाएगा।
न्यायमूर्ति खन्ना का जन्म 14 मई, 1960 को हुआ था और उन्होंने 1983 में दिल्ली बार काउंसिल में अधिवक्ता के रूप में नामांकन लेने से पहले दिल्ली विश्वविद्यालय के ‘कैम्पस लॉ सेंटर’ से कानून की पढ़ाई की थी।
एक वकील के रूप में उन्होंने तीस हजारी परिसर स्थित जिला अदालतों में वकालत की और बाद में दिल्ली उच्च न्यायालय में वकालत करने लगे।
न्यायमूर्ति खन्ना अतिरिक्त सरकारी वकील और न्यायमित्र के रूप में दिल्ली उच्च न्यायालय में कई आपराधिक मामलों में पेश हुए और बहस की।
वह राष्ट्रीय विधिक सेवा प्राधिकरण के कार्यकारी अध्यक्ष भी थे।
न्यायमूर्ति संजीव खन्ना के चाचा न्यायमूर्ति एच. आर. खन्ना आपातकाल के दौरान कुख्यात ए. डी. एम. जबलपुर मामले में असहमतिपूर्ण फैसला लिखने के बाद 1976 में इस्तीफा देकर सुर्खियों में आये थे।
आपातकाल के दौरान मौलिक अधिकारों को रद्द किए जाने को बरकरार रखने वाले संविधान पीठ के बहुमत के फैसले को न्यायपालिका पर एक ‘‘काला धब्बा’’ माना गया।
न्यायमूर्ति एच. आर. खन्ना ने इस कदम को असंवैधानिक और विधि के विरुद्ध घोषित किया और इसकी कीमत उन्हें तब चुकानी पड़ी जब तत्कालीन केन्द्र सरकार ने उन्हें दरकिनार कर न्यायमूर्ति एम. एच. बेग को अगला प्रधान न्यायाधीश बना दिया।
न्यायमूर्ति एच.आर. खन्ना 1973 के केशवानंद भारती मामले में मूल संरचना सिद्धांत को प्रतिपादित करने वाले ऐतिहासिक फैसले का हिस्सा थे।
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