वक्फ अधिनियम सुनवाई: न्यायालय ने कहा, कानून के पक्ष में वैधता की धारणा, राहत के लिए मजबूत मामला
धीरज सुरेश
- 20 May 2025, 08:47 PM
- Updated: 08:47 PM
नयी दिल्ली, 20 मई (भाषा) उच्चतम न्यायालय ने कानून के पक्ष में ‘‘संवैधानिकता की अवधारणा’’ को रेखांकित करते हुए मंगलवार को कहा कि वक्फ कानून को चुनौती देने वाले याचिकाकर्ताओं को अंतरिम राहत के लिए एक ‘मजबूत और स्पष्ट’ मामले की आवश्यकता है।
प्रधान न्यायाधीश बी आर गवई और न्यायमूर्ति ऑगस्टीन जॉर्ज मसीह की पीठ ने तीन मुद्दों पर अंतरिम आदेश पारित करने के लिए वक्फ (संशोधन) अधिनियम, 2025 की वैधता को चुनौती देने वाली याचिकाओं पर सुनवाई शुरू की, जिसमें ‘अदालतों द्वारा वक्फ, उपयोगकर्ता द्वारा वक्फ या विलेख द्वारा वक्फ’ घोषित संपत्तियों को गैर-अधिसूचित करने का अधिकार शामिल है।
मामले की सुनवाई के दौरान जब वरिष्ठ अधिवक्ता कपिल सिब्बल ने कानून के खिलाफ अपना पक्ष रखना शुरू किया तो प्रधान न्यायाधीश ने कहा, ‘‘प्रत्येक कानून के पक्ष में ‘संवैधानिकता की अवधारणा’ होती है। अंतरिम राहत के लिए आपको बहुत मजबूत और स्पष्ट मामला बनाना होगा, अन्यथा संवैधानिकता की अवधारणा बनी रहेगी।’’
सिब्बल ने इस कानून को ‘ऐतिहासिक कानूनी और संवैधानिक सिद्धांतों से पूर्णतः परे’ तथा ‘गैर-न्यायिक प्रक्रिया के माध्यम से वक्फ पर कब्जा करने’ का साधन बताया।
केंद्र सरकार का पक्ष रखने के लिए पेश हुए सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता ने पीठ से अनुरोध किया था कि याचिकाओं पर सुनवाई तीन मुद्दों तक सीमित रखी जाए। इनमें से एक मुद्दा यह है कि न्यायालय द्वारा वक्फ, उपयोगकर्ता द्वारा वक्फ या विलेख द्वारा वक्फ घोषित संपत्तियों को गैर-अधिसूचित करने का अधिकार है।
दूसरा मुद्दा राज्य वक्फ बोर्ड और केंद्रीय वक्फ परिषद की संरचना से संबंधित है, जहां कानून का विरोध करने वालों की दलील है कि पदेन सदस्यों को छोड़कर केवल मुसलमानों को ही काम करना चाहिए, जबकि अंतिम मुद्दा इस प्रावधान से संबंधित है कि जब कलेक्टर यह पता लगाने के लिए जांच करता है कि संपत्ति सरकारी भूमि है या नहीं, तो वक्फ संपत्ति को वक्फ नहीं माना जाएगा।
मेहता की दलील का वक्फ संशोधन कानून-2025 के खिलाफ याचिका दायर करने वालों की ओर से पेश वरिष्ठ अधिवक्ता सिब्बल और अभिषेक सिंघवी ने जोरदार तरीके से विरोध करते हुए कहा कि इस मामले में टुकड़ों में सुनवाई नहीं हो सकती।
सिब्बल ने कहा, ‘‘यह वक्फ संपत्तियों पर व्यवस्थित कब्जे का मामला है। सरकार यह तय नहीं कर सकती कि कौन से मुद्दे उठाए जाएं।’’
सिब्बल ने कहा कि संशोधित कानून न्यायिक प्रक्रिया को दरकिनार करते हुए कार्यकारी के माध्यम से वक्फ संपत्तियों के व्यवस्थित अधिग्रहण को सक्षम बनाता है और इसके अलावा, वक्फ संपत्तियां गैर-वक्फ बन सकती हैं, वह भी एक कार्यकारी आदेश के जरिये पीड़ित पक्षों को अदालतों तक पहुंचने के अधिकार से वंचित करके।
उन्होंने दलील दी, ‘‘वक्फ, वाकिफ द्वारा ‘अल्लाह’ को संपत्ति समर्पित करना है और यह अवधारणा कि एक बार वक्फ, हमेशा वक्फ रहता है, 2025 के कानून से खतरे में पड़ गई है।’’
सिब्बल ने कहा कि इस विषय पर पहले के कानून संपत्तियों की सुरक्षा के लिए थे और वर्तमान कानून का उद्देश्य उन्हें छीनना है। उन्होंने कहा कि यह कानून ‘ऐतिहासिक कानूनी और संवैधानिक सिद्धांतों से पूरी तरह से अलग है।’
सिब्बल ने कहा कि यह कानून वक्फ संपत्तियों के ‘धीरे-धीरे अधिग्रहण’ का प्रावधान करता है और वक्फ की अवधारणा को कमजोर करता है, जो इस्लामी कानून के तहत धार्मिक या धर्मार्थ उद्देश्यों के लिए एक स्थायी बंदोबस्ती है।
उन्होंने अधिनियम की धारा- तीन(सी) का उल्लेख करते हुए कहा कि यह एक नामित अधिकारी को जांच करने का अधिकार देता है कि कोई संपत्ति सरकारी भूमि है या नहीं।
सिब्बल ने कहा कि विचित्र बात यह है कि ऐसी जांच के लंबित रहने के दौरान संपत्ति को वक्फ नहीं माना जाएगा और इससे अधिकारियों को न्यायिक समीक्षा के बिना ही नियंत्रण लेने की अनुमति मिल जाती है।
उन्होंने धारा नौ और 14 का उल्लेख करते हुए कहा कि ये केंद्रीय और राज्य वक्फ बोर्ड की संरचना में परिवर्तन करने का प्रावधान करते हैं और बहुसंख्यक गैर-मुस्लिमों को इसका हिस्सा बनने की अनुमति देते हैं।
सिब्बल ने कहा, ‘‘यह समुदाय के नियंत्रण को कमजोर करने का एक प्रयास है। धारा 23 वक्फ बोर्ड के सीईओ के रूप में एक गैर-मुस्लिम की नियुक्ति की अनुमति देती है।’’
उन्होंने कानून की धारा- तीन(डी) को लेकर कहा कि इसमें प्रावधान है कि संरक्षण कानून के तहत प्राचीन स्मारक घोषित की गई कोई भी वक्फ संपत्ति वक्फ नहीं रह जाएगी।
सिब्बल ने सवाल किया कि अधिकारी सदियों पहले की गई वक्फ संपत्ति के लिए दस्तावेजी साक्ष्य या विलेख की मांग कैसे कर सकते हैं, जबकि 1954 से पहले और विशेष रूप से 1923 के बाद पंजीकरण अनिवार्य हो सका था, लेकिन इसका अभाव वक्फ की प्रकृति को नकार नहीं सकता।
पीठ ने हाल में उनके धार्मिक स्थल के दौरे का संदर्भ देते हुए सवाल किया, ‘‘क्या प्राचीन स्मारक कानून के तहत घोषणा के कारण नागरिकों को अपने धर्म का पालन करने से रोका जाता है?’’ उसने कहा कि वहां हिंदुओं को पूजा-अर्चना करने से नहीं रोका गया था।
सिब्बल ने कहा कि 2025 का अधिनियम, प्राचीन स्मारक संरक्षण अधिनियम 1904 और 1958 जैसे पुराने कानूनों से अलग है, जिनमें धार्मिक कार्यों के अधिकार को संरक्षित किया गया था। उन्होंने इस संदर्भ में दिल्ली के जामा मस्जिद का उदाहरण दिया जिसे संरक्षित क्षेत्र के रूप में अधिसूचित किए जाने के बावजूद वक्फ के रूप में इस्तेमाल किया जा सकता है।
सिब्बल ने कहा, ‘‘लेकिन 2025 का संशोधन (धारा तीन-डी) संरक्षित स्मारकों की वक्फ घोषणाओं को अमान्य करता है। उन्होंने कहा कि यह कानून संविधान के अनुच्छेद 14 (समानता का अधिकार) 25 और 26 (धर्म का पालन करने और प्रचार करने के अधिकार) का उल्लंघन करता है।
सिब्बल ने कहा कि यदि संशोधित प्रावधानों को लागू करने की अनुमति दी गई, तो इससे अपूरणीय क्षति होगी, विशेषकर उन प्रावधानों को, जो न्यायिक निर्णय के बिना जांच लंबित रहने तक वक्फ संपत्तियों को अपने निंयत्रण में लेने की अनुमति देते हैं।
उन्होंने कहा कि पूर्ववर्ती वक्फ अधिनियमों के तहत पंजीकरण अनिवार्य था, लेकिन पंजीकरण न कराने से संपत्ति की धार्मिक प्रकृति में कोई बदलाव नहीं आता था, जबकि संशोधित कानून के तहत ऐसा नहीं है।
सिब्बल ने कहा कि पहले वक्फ के लिए पंजीकरण की आवश्यकता नहीं थी, लेकिन नए कानून के तहत यदि मुतवल्ली (संरक्षक) संपत्ति के बारे में संतोषजनक जवाब नहीं दे पाता है तो उसे छह महीने की जेल हो सकती है।
उन्होंने कहा, ‘‘जिस क्षण उन्हें संरक्षित स्मारक घोषित किया जाएगा, वे अपना वक्फ का दर्जा खो देंगे।’’
सिब्बल ने केन्द्रीय वक्फ परिषद में मुस्लिम प्रतिनिधित्व के कमतर होने की ओर भी ध्यान दिलाया तथा कहा कि संशोधित कानून अब गैर-मुस्लिम सदस्यों को बहुमत की अनुमति देता है- जो कि पिछले मानदंडों से बिल्कुल अलग है।
उन्होंने कहा, ‘‘इससे पहले बोर्ड के सदस्य निर्वाचित होते थे और वे सभी मुसलमान होते थे। अब वे सभी मनोनीत हैं। इसमें 11 सदस्य होंगे और सात गैर-मुस्लिम हो सकते हैं। यह अनुच्छेद 25 और 26 का उल्लंघन है। प्रबंधन समुदाय द्वारा किया जाना चाहिए।’’
पीठ ने प्रावधान पर गौर किया और कहा कि कानून गैर-मुस्लिम नियुक्तियों को दो पदों तक सीमित करता है।
सिब्बल ने कहा, ‘‘यहां तक कि दो भी बहुत अधिक हैं।’’
हिंदुओं और सिखों के लिए धार्मिक बंदोबस्ती बोर्ड से इसकी तुलना करते हुए सिब्बल ने कहा कि यहां तक कि पदेन सदस्य और बोर्ड के सदस्य भी उन संदर्भों में एक ही धर्म से होते हैं और वक्फ बोर्ड भी इससे अलग नहीं होने चाहिए।
उन्होंने कहा, ‘‘यह धर्मनिरपेक्षता नहीं है। वक्फ का निर्माण एक धार्मिक कार्य है।’’
एक अन्य याचिकाकर्ता की ओर से पेश वरिष्ठ अधिवक्ता राजीव धवन ने कहा कि यह कानून ‘‘धर्मनिरपेक्षता और सांस्कृतिक स्वायत्तता पर हमला’’ है।
उन्होंने कहा कि कानून में संशोधन करते समय केंद्र द्वारा आनुपातिकता के सिद्धांत का पालन नहीं किया गया, क्योंकि जिस समस्या का समाधान किया जाना था और ‘इन चरम समाधानों’ के बीच कोई संबंध नहीं था।
दूसरी ओर, सिंघवी ने उस प्रावधान पर सवाल उठाया, जिसके अनुसार पिछले पांच वर्षों से इस्लाम का पालन करने वाला व्यक्ति ही संपत्ति वक्फ कर सकता है।
उन्होंने इसे ‘मनमाना और अंतहीन’ बताते हुए कहा कि कोई भी अन्य धर्म इस तरह के बोझ के अधीन नहीं है।
सिंघवी ने धारा तीन(सी) के बारे में चिंता जताते हुए कहा कि एक बार किसी संपत्ति को गैर-वक्फ घोषित कर दिया जाता है, तो कानूनी उपचार तक पहुंच व्यावहारिक रूप से बंद हो जाती है, जिससे लाभार्थी एक ‘दुष्चक्र’ में फंस जाते हैं।
केंद्र ने दलील थी कि संसद द्वारा पारित कानून पर आमतौर पर रोक नहीं लगाई जा सकती। इसका जवाब देते हुए सिंघवी ने कहा कि कृषि कानूनों पर शीर्ष अदालत ने रोक लगा दी थी।
केंद्र ने दलील दी कि 2013 के संशोधन के बाद वक्फ संपत्तियों में ‘‘1600 प्रतिशत की वृद्धि’’ हुई है। इसपर सिंघवी ने कहा कि यह वृद्धि डिजिटलीकरण और सूचीबद्ध प्रक्रियाओं के कारण हुई है, न कि नए अधिग्रहणों के कारण।
भाषा धीरज