भारत ने 2022 में कई अमीर देशों की तुलना में अधिक जलवायु वित्त प्रदान किया: रिपोर्ट
आशीष माधव
- 04 Sep 2024, 04:57 PM
- Updated: 04:57 PM
नयी दिल्ली, चार सितंबर (भाषा) भारत ने 2022 में बहुपक्षीय विकास बैंक (एमडीबी) के माध्यम से जलवायु वित्त पोषण में कई विकसित देशों के योगदान से अधिक 1.28 अरब अमेरिकी डॉलर का योगदान दिया। एक नये विश्लेषण से यह जानकारी मिली।
ब्रिटेन स्थित ‘थिंक टैंक’ ओडीआई और ‘ज्यूरिख क्लाइमेट रेजिलिएंस एलायंस’ द्वारा किया गया यह विश्लेषण, कुछ विकसित देशों द्वारा जलवायु वित्त के लिए दाता आधार को व्यापक बनाने के लिए चीन और सऊदी अरब जैसे विकासशील देशों को शामिल करने के नए सिरे से प्रयास के बीच आया है।
रिपोर्ट से पता चलता है कि केवल 12 विकसित देशों ने 2022 में अंतरराष्ट्रीय जलवायु वित्त का अपना उचित हिस्सा प्रदान किया। ये देश हैं-नॉर्वे, फ्रांस, लक्जमबर्ग, जर्मनी, स्वीडन, डेनमार्क, स्विट्जरलैंड, जापान, नीदरलैंड, ऑस्ट्रिया, बेल्जियम और फिनलैंड।
शोधकर्ताओं ने पाया कि जलवायु वित्त में महत्वपूर्ण अंतराल मुख्य रूप से अमेरिका द्वारा अपने उचित हिस्से का योगदान न देने के कारण है। ऑस्ट्रेलिया, स्पेन, कनाडा और ब्रिटेन ने भी इस संबंध में अपेक्षाकृत खराब प्रदर्शन किया है।
विश्लेषण में उन शीर्ष 30 ‘गैर-अनुलग्नक-दो’ देशों की पहचान की गई है, जिन्होंने विकास बैंक और जलवायु निधियों में बहुपक्षीय योगदान के माध्यम से 2022 में विकासशील देशों को पर्याप्त जलवायु वित्त प्रदान किया।
इस समूह में पोलैंड और रूस, 1992 के बाद उच्च आय का दर्जा प्राप्त करने वाले देश जैसे चिली, कुवैत, सऊदी अरब और दक्षिण कोरिया, तथा बड़ी आबादी के साथ मध्यम आय वाले देश जैसे ब्राजील, चीन, भारत, इंडोनेशिया, मैक्सिको, नाइजीरिया, फिलीपीन और पाकिस्तान शामिल हैं।
भारत ने 2022 में एमडीबी के माध्यम से अन्य विकासशील देशों को जलवायु वित्त पोषण में 1.28 अरब अमेरिकी डॉलर प्रदान किए, जो यूनान (0.23 अरब अमेरिकी डॉलर), पुर्तगाल (0.23 अरब अमेरिकी डॉलर), आयरलैंड (0.3 अरब अमेरिकी डॉलर) और न्यूजीलैंड (0.27 अरब अमेरिकी डॉलर) जैसे कुछ विकसित देशों द्वारा दिए गए योगदान से अधिक है।
चीन ने 2022 में एमडीबी के माध्यम से जलवायु वित्त पोषण में 2.52 अरब अमेरिकी डॉलर प्रदान किए, ब्राजील ने 1.135 अरब अमेरिकी डॉलर, दक्षिण कोरिया ने 1.13 अरब अमेरिकी डॉलर और अर्जेंटीना ने 1.01 अरब अमेरिकी डॉलर दिए।
वर्ष 1992 में अपनाए गए जलवायु परिवर्तन पर संयुक्त राष्ट्र फ्रेमवर्क कन्वेंशन (यूएनएफसीसीसी) के अनुसार, उच्च आय वाले, औद्योगिक देश (जिन्हें अनुलग्नक-दो देश कहा जाता है) विकासशील देशों को जलवायु परिवर्तन से निपटने और अनुकूलन में मदद करने के लिए वित्त और प्रौद्योगिकी प्रदान करने के लिए जिम्मेदार हैं। अमेरिका, कनाडा, जापान, ऑस्ट्रेलिया, न्यूजीलैंड और यूरोपीय संघ (ईयू) के सदस्य देशों जैसे जर्मनी, फ्रांस तथा ब्रिटेन सहित इन देशों ने ऐतिहासिक रूप से औद्योगीकरण से लाभ उठाया है और ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन में सबसे अधिक योगदान दिया है।
वर्ष 2009 में कोपेनहेगन में सीओपी15 में, इन विकसित देशों ने विकासशील देशों को जलवायु परिवर्तन को कम करने और उसके अनुकूल होने में मदद करने के लिए 2020 तक हर साल संयुक्त रूप से 100 अरब अमेरिकी डॉलर प्रदान करने का संकल्प जताया था। हालांकि, यह लक्ष्य पूरा नहीं हुआ है, जिससे वित्तीय घाटा काफी बढ़ गया है। इस कमी ने विकासशील देशों में विश्वास को खत्म कर दिया है और जलवायु कार्रवाई में बाधा उत्पन्न की है।
रिपोर्ट में नए सामूहिक परिमाणित लक्ष्य (एनसीक्यूजी) में एक ‘‘बोझ-साझाकरण व्यवस्था’’ को शामिल करने का आह्वान किया गया है, ताकि प्रत्येक देश के दायित्वों पर स्पष्टता प्रदान की जा सके और देशों को जवाबदेह बनाया जा सके।
ओडीआई शोधकर्ताओं के अनुसार, विकसित देशों के बीच बोझ-साझा करने की व्यवस्था को शामिल करने से संभावित रूप से पक्षों के बीच अधिक जवाबदेही और विश्वास को बढ़ावा देकर एनसीक्यूजी को मजबूत किया जा सकता है। भारत सहित कई विकासशील देशों ने हाल में विकसित देशों के बीच जवाबदेही बढ़ाने के लिए ऐसी व्यवस्था की वकालत की है।
भाषा आशीष