वाणिज्यिक विवादों में प्रतिवाद के लिए मुकदमेबाजी से पहले मध्यस्थता अनिवार्य: उच्च न्यायालय
सुरेश अजय
- 04 Sep 2024, 04:36 PM
- Updated: 04:36 PM
नयी दिल्ली, चार सितंबर (भाषा) दिल्ली उच्च न्यायालय ने व्यवस्था दी है कि वाणिज्यिक विवादों में जवाबी दावा संबंधी प्रतिवाद दायर करने के लिए ‘वाणिज्यिक न्यायालय अधिनियम’ (सीसीए) के तहत ‘मुकदमे से पहले’ मध्यस्थता की आवश्यकता नैसर्गिक तौर पर अनिवार्य है।
अदालत ने कहा कि वाणिज्यिक विवाद से जुड़े हर मुकदमे के लिए मध्यस्थता की प्रक्रिया अनिवार्य है और जब वाणिज्यिक विवाद से जुड़े प्रतिवाद की बात आती है तो न तो मामले-दर-मामले में अंतर किया जा सकता है, न ही तत्काल राहत की बात की जा सकती है।
न्यायमूर्ति मनोज जैन ने कहा, ‘‘(प्रतिवाद से) पहले मध्यस्थता का उद्देश्य परोपकारी है। यह प्रक्रिया किसी भी रूप में त्वरित सुनवाई को बाधित नहीं करती है। इसके विपरीत, मध्यस्थता का उद्देश्य ऐसी स्थिति की कल्पना करना है, जहां इस तरह की पूर्व-संस्थागत मध्यस्थता के माध्यम से मामले का निपटारा हो जाने के बाद कोई नया मामला शुरू न हो। इसलिए, इसे निरर्थक प्रयास नहीं कहा जा सकता है।’’
अदालत ने सबसे पहले इस बात का उल्लेख किया कि याचिका एक ‘‘दिलचस्प प्रस्ताव’’ प्रस्तुत करती है।
पीठ ने कहा कि अनिवार्य प्रावधान को उदारतापूर्वक व्याख्यायित करने का कोई मतलब नहीं है, क्योंकि यह विधायी जनादेश का खंडन और अवमूल्यन करेगा। इस तरह की (गलत) व्याख्या इसकी प्रकृति को 'अनिवार्य' से 'वैकल्पिक' की श्रेणी में ला देगी।
अदालत ने कहा, ‘‘उपरोक्त विमर्श के मद्देनजर यह बात स्पष्ट रूप से सामने आती है कि वाणिज्यिक विवाद से जुड़े हर मुकदमे के लिए मध्यस्थता की प्रक्रिया अनिवार्य है और जब वाणिज्यिक विवाद से जुड़े प्रतिवाद की बात आती है तो न तो मामले-दर-मामले में अंतर किया जा सकता है, न ही तत्काल राहत की बात की जा सकती है।
वाणिज्यिक न्यायालय अधिनियम की धारा 12-ए का सहारा लिये बिना दायर किए गए ऐसे किसी भी मुकदमे को सीपीसी के आदेश-सात, नियम 11 के तहत खारिज किया जाना चाहिए।’’
अधिनियम की धारा 12-ए मुकदमा दायर करने से पहले पूर्व-संस्थागत मध्यस्थता की अनिवार्य आवश्यकता को रेखांकित करती है, बशर्ते तत्काल अंतरिम राहत की मांग न की जाए।
पीठ का यह निर्णय इस मुद्दे पर आया कि क्या सीसीए की धारा 12-ए के तहत पूर्व-संस्थागत मध्यस्थता की अनिवार्य आवश्यकता उन वाणिज्यिक विवादों में प्रतिदावों पर लागू होती है, जिनमें किसी तत्काल राहत की आवश्यकता नहीं होती है।
मामला आदित्य बिड़ला फैशन एंड रिटेल लिमिटेड से संबंधित है, जिसकी ओर से अधिवक्ता वरुण शर्मा पेश हुए।
कंपनी ने 2013 में प्रतिवादी से एक दुकान पट्टे पर ली थी।
याचिका में कहा गया है कि कोविड-19 महामारी के प्रतिकूल प्रभाव के कारण, याचिकाकर्ता ने पट्टे पर लिये गये परिसर में अपना व्यावसायिक संचालन बंद करने का फैसला किया और ‘सुरक्षा जमा’ राशि की मांग करते हुए पट्टा समाप्त करने का नोटिस जारी किया।
प्रतिवादी सुरक्षा जमा वापस करने में विफल रहा, जिससे याचिकाकर्ता कंपनी ने राशि वसूली के लिए एक वाणिज्यिक मुकदमा शुरू किया।
मुकदमा दायर करने से पहले, याचिकाकर्ता ने साकेत में दक्षिण जिला विधिक सेवा प्राधिकरण (एसडीएलएसए) के साथ पूर्व-संस्थागत मध्यस्थता के लिए अर्जी दायर करके सीसीए की धारा 12-ए का अनुपालन किया।
हालांकि, जब प्रतिवादी मध्यस्थता के लिए उपस्थित नहीं हुआ, तो प्रक्रिया को 'असफल' घोषित कर दिया गया तथा याचिकाकर्ता द्वारा मुकदमा दायर किया गया।
तदनुसार, प्रतिवादी ने पूर्व-संस्थागत मध्यस्थता का सहारा लिये बिना किराये के भुगतान को एक प्रतिदावा दायर किया, जिसके कारण याचिकाकर्ता ने अनिवार्य मध्यस्थता प्रक्रिया का पालन न करने के कारण प्रतिदावे को नामंजूर करने की अर्जी दायर की, जिसे निचली अदालत ने खारित कर दिया था। इसके बाद याचिकाकर्ता ने उच्च न्यायालय का दरवाजा खटखटाया।
उच्च न्यायालय ने कहा कि निचली अदालत के आदेश को बरकरार नहीं रखा जा सकता है।
भाषा सुरेश