तलाक के खिलाफ महिला की लंबी लड़ाई पर शीर्ष अदालत ने कहा: न्याय प्रणाली उसके प्रति अविवेकपूर्ण रही
वैभव पवनेश
- 03 Sep 2024, 05:16 PM
- Updated: 05:16 PM
नयी दिल्ली, तीन सितंबर (भाषा) अपने से अलग रह रहे पति के पक्ष में कई बार तलाक का आदेश दिए जाने के एक कुटुम्ब अदालत के फैसले के खिलाफ लंबी कानूनी लड़ाई लड़ रही एक महिला की पीड़ा पर संज्ञान लेते हुए उच्चतम न्यायालय ने कहा कि न्यायिक प्रणाली उसके प्रति ‘‘बेहद अविवेकपूर्ण’’ थी।
महिला का विवाह 1991 में हुआ था और उसने एक साल बाद एक बेटे को जन्म दिया और उसके पति ने उसे छोड़ दिया। पति ने कर्नाटक की एक कुटुम्ब अदालत में तलाक की अर्जी दाखिल की जिसने एक बार नहीं बल्कि तीन बार महिला के पति के पक्ष में तलाक का आदेश दिया और इस तथ्य की अवहेलना की कि वह महिला या उनके नाबालिग बच्चे के गुजारा भत्ते के लिए कुछ भी नहीं दे रहा था।
उच्च न्यायालय ने कई बार कुटुम्ब अदालत से कहा कि महिला के पति की याचिका पर नए सिरे से फैसला किया जाए। महिला ने तलाक दिए जाने के फैसले के खिलाफ उच्च न्यायालय का रुख किया था।
उच्च न्यायालय ने तीसरी बार 20 लाख रुपये स्थायी गुजारा भत्ता का भुगतान करने पर पति के पक्ष में तलाक के कुटुम्ब अदालत के फैसले को मंजूरी दे दी। स्थानीय अदालत ने महिला को 25 लाख रुपये दिए जाने का फैसला सुनाया था।
महिला के करीब तीन दशक तक बिना पर्याप्त गुजारा भत्ता मिले जीवन यापन करने पर न्यायमूर्ति सूर्यकांत और न्यायमूर्ति उज्जल भुइयां की पीठ का ध्यान गया।
शीर्ष अदालत ने तलाक का आदेश बार-बार देने के कुटुम्ब अदालत के रुख पर अप्रसन्नता जताई।
पीठ ने कहा, ‘‘रिकॉर्ड का अध्ययन करने के बाद ऐसा लगता है कि अपीलकर्ता और उनके नाबालिग बेटे, जो अब बालिग हो गया है, के लिए न्याय प्रणाली बहुत अविवेकपूर्ण रही। हम ऐसा इसलिए कह रहे हैं क्योंकि प्रतिवादी ने इतने साल तक अपीलकर्ता के साथ अत्यंत क्रूरता की और अपने बेटे के बेहतर भविष्य के लिए कोई सहायता नहीं दी या उसकी स्कूली शिक्षा के लिए भी भुगतान नहीं किया।’’
पीठ ने कहा, ‘‘प्रतिवादी की अपनी मां इतने साल से अपनी बहू/अपीलकर्ता के साथ रह रही हैं और उसके (अपने बेटे के) खिलाफ आगे आई हैं। जिस यांत्रिक तरीके से कुटुम्ब न्यायालय अपीलकर्ता के खिलाफ तलाक के आदेश पारित करता रहा, वह न केवल संवेदनशीलता की कमी को दर्शाता है, बल्कि अपीलकर्ता के खिलाफ छिपे हुए पूर्वाग्रह को भी दर्शाता है।’’
हालांकि, अदालत ने कहा कि वह इस तथ्य से अनभिज्ञ नहीं हो सकती कि दोनों पक्ष 1992 से अलग-अलग रह रहे हैं और इसलिए कुटुम्ब अदालत द्वारा शर्त के साथ दिए गए तलाक के आदेश को बरकरार रखा जाता है।
शीर्ष न्यायालय ने न केवल 20 लाख रुपये के गुजारा भत्ते में 10 लाख रुपये की वृद्धि की, बल्कि यह भी आदेश दिया कि वर्तमान में महिला, उसका पुत्र और सास जिस मकान में रह रहे हैं, वह उनके पास ही रहेगा तथा उसने व्यक्ति को संपत्ति के शांतिपूर्ण कब्जे में हस्तक्षेप करने से रोक दिया।
पीठ ने कहा, "यदि प्रतिवादी के पास कोई अन्य अचल संपत्ति है, तो प्रतिवादी द्वारा स्वामित्व के किसी भी हस्तांतरण के बावजूद पक्षों के बेटे को उसमें अधिमान्य स्वामित्व अधिकार प्राप्त होगा। यह निर्देश इस कारण से आवश्यक है कि उनके (दंपति के बेटे के) पास अपने स्कूल और उच्च शिक्षा के लिए भरणपोषण और पर्याप्त राशि मांगने का एक अपरिवर्तनीय और लागू करने योग्य अधिकार है।"
निर्देशों को अनिवार्य रूप से लागू किये जाने योग्य बनाते हुए शीर्ष न्यायालय ने व्यक्ति को चेतावनी दी कि इसका पालन न करने पर तलाक का आदेश स्वतः ही "अमान्य" हो जाएगा।
न्यायालय ने व्यक्ति को तीन महीने के भीतर गुजारा भत्ता देने को कहा, जिसमें 3 अगस्त 2006 से सात प्रतिशत वार्षिक ब्याज भी शामिल होगा, जिस दिन तलाक का पहला आदेश पारित किया गया था।
भाषा वैभव