‘टाइगर अभी जिंदा है’: नीतीश कुमार की ‘ना थकने, ना हटने’ वाली राजनीतिक जिद का प्रतीक नारा
राजकुमार
- 14 Nov 2025, 08:02 PM
- Updated: 08:02 PM
पटना, 14 नवंबर (भाषा) ‘टाइगर अभी ज़िंदा है’-बॉलीवुड की एक लोकप्रिय फ़िल्म का शीर्षक-जदयू नेता और मुख्यमंत्री नीतीश कुमार की उस राजनीतिक मुद्रा का सार है जिसमें न कोई थकान है, न ही राजनीति से संन्यास लेने का इशारा।
वर्ष 2020 की तुलना में अपनी पार्टी जनता दल यूनाइटेड (जदयू) का आंकड़ा लगभग दोगुना करने की ओर अग्रसर कुमार के लिए यह नारा सटीक प्रतीक बनकर उभरा है।
इस विधानसभा चुनाव में 75 वर्षीय मुख्यमंत्री को बहुत कुछ साबित करना था। उनके खिलाफ थकान, सत्ता विरोधी लहर और खराब स्वास्थ्य की अफवाहें चुनाव से पहले खूब फैलीं।
इसी बीच, उन्होंने सामाजिक सुरक्षा पेंशन, जीविका, आशा और आंगनवाड़ी कार्यकर्ताओं के मानदेय में वृद्धि और सबसे चर्चित ‘मुख्यमंत्री महिला रोजगार योजना’ जैसी कई राहतें तेज़ी से लागू कीं। इस रोजगार योजना के तहत एक करोड़ से अधिक महिलाओं के बैंक खातों में 10,000 रुपए पहले ही पहुंच चुके हैं।
विपक्ष ने इन्हें ‘फ्रीबीज़’ बताते हुए उन पर निशाना साधा। पूर्व उपमुख्यमंत्री तेजस्वी यादव ने सरकार को ‘कॉपीकैट’ कहा, जबकि प्रशांत किशोर के सहयोगी पवन वर्मा ने इसे “मतदाताओं को रिश्वत” बताते हुए निर्वाचन आयोग से कार्रवाई की मांग की।
राज्य के सबसे लंबे समय तक मुख्यमंत्री रहने वाले नीतीश कुमार इन आलोचनाओं से बेपरवाह रहे। यहां तक कि उनपर उनके विरोधियों द्वारा लगाए गए इस आरोप से भी कोई असर नहीं पड़ा कि भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) उनके साथ ‘शिंदे मॉडल’ दोहराना चाहती है—जैसे महाराष्ट्र में शिवसेना के नेतृत्व को किनारे किया गया था।
भाजपा ने इस चुनाव में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी समेत अपनी पूरी चुनावी मशीनरी झोंक दी, नीतीश कुमार ने एक स्थिर और अनुशासित अभियान चलाया। दिलचस्प रूप से, मोदी ने 14 रैलियां और एक रोड शो करने के बावजूद नीतीश कुमार के साथ मंच केवल सामस्तीपुर की पहली सभा में साझा किया। लेकिन हर जनसभा में उन्होंने ‘नीतीश बाबू’ के कामों की सराहना की और जनता को ‘जंगलराज’ की वापसी से सावधान किया।
अब यह देखना बाकी है कि क्या इंजीनियरिंग स्नातक कुमार को एक और कार्यकाल दिया जाएगा या भाजपा की यह मांग और मुखर होगी कि बिहार जैसे हिंदी भाषी राज्य में उसकी अपनी पार्टी का मुख्यमंत्री होना चाहिए, जहां अब तक पूर्ण सत्ता उसके हाथ नहीं आई है।
कुमार ने एक समय राजनीति में आने के लिए बिहार बिजली बोर्ड की नौकरी ठुकरा दी थी।
बख्तियारपुर में 1951 में जन्मे नीतीश कुमार का राजनीतिक सफ़र जेपी आंदोलन से शुरू हुआ। उन्होंने 1977 में पहली बार विधानसभा चुनाव लड़ा, जिसमें उन्हें हार मिली। उन्होंने 1985 में पहली जीत दर्ज की।
लगभग पांच दशक की राजनीति में बार-बार पाले बदलने के कारण उन्हें ‘पलटू राम’ का उपनाम भी मिला।
भाजपा हमेशा सावधान रही है, क्योंकि नीतीश कुमार जितनी सहजता से विपक्षी राष्ट्रीय जनता दल (राजद) खेमे में जाने के लिए जाने जाते हैं, उतनी ही सहजता से सत्ता में लौटने का रास्ता भी तलाश लेते हैं। हालांकि इस बार ‘इंडिया’ गठबंधन की भारी हार को देखते हुए किसी और ‘फ्लिप-फ्लॉप’ की संभावना बहुत कम है।
केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह ने हाल के एक टीवी इंटरव्यू में कहा था कि “राजग के विधायक तय करेंगे कि बिहार का अगला मुख्यमंत्री कौन होगा”, यह टिप्पणी कई तरह के राजनीतिक अर्थों को जन्म दे चुकी है।
काफी समय से यह भी अटकलें रही हैं कि राष्ट्रपति या उपराष्ट्रपति जैसे शीर्ष संवैधानिक पदों के लिए चुनाव होने पर राजग उन्हें उम्मीदवार बना सकता है, ताकि उन्हें एक सम्मानजनक ‘विदाई’ दी जा सके।
लेकिन जो भी हो, बिहार की जनता-खासकर वे महिलाएं जिनके लिए वह लगातार योजनाएं लेकर आते रहे हैं और जिनके लिए उन्होंने शराबबंदी जैसे सख्त फैसलों का जोखिम उठाया—ने इस चुनाव में उन्हें एक बड़ी राजनीतिक सौगात दी है।
भाषा कैलाश