झारखंड सरकार को 126 कंपार्टमेंट्स को सारंडा वन्यजीव अभयारण्य के रूप में अधिसूचित करने का निर्देश
जितेंद्र नरेश
- 13 Nov 2025, 05:01 PM
- Updated: 05:01 PM
नयी दिल्ली, 13 नवंबर (भाषा) उच्चतम न्यायालय ने बृहस्पतिवार को झारखंड सरकार को सारंडा वन क्षेत्र के 126 कंपार्टमेंट्स को तीन महीने के भीतर वन्यजीव अभयारण्य के रूप में अधिसूचित करने का निर्देश दिया और अभयारण्य की सीमा के एक किलोमीटर के दायरे में किसी भी प्रकार की खनन गतिविधि पर रोक लगा दी।
भारत के प्रधान न्यायाधीश बीआर गवई और न्यायमूर्ति के. विनोद चंद्रन की पीठ ने तल्ख टिप्पणी करते हुए कहा कि राज्य सरकार 31,468.25 हेक्टेयर क्षेत्र को सारंडा वन्यजीव अभयारण्य घोषित करने के अपने कर्तव्य से नहीं भाग सकती।
पीठ ने खनन के लिए निर्दिष्ट छह कंपार्टमेंट्स को इससे बाहर रखा।
पीठ ने कहा, “हम निर्देश देते हैं कि राज्य सरकार 1968 की अधिसूचना में अधिसूचित 126 कम्पार्टमेंट वाले क्षेत्र को इस फैसले की तारीख से तीन महीने की अवधि के भीतर वन्यजीव अभयारण्य के रूप में अधिसूचित करे।”
पीठ ने छह कम्पार्टमेंट को शामिल नहीं किया है, उसमें कम्पार्टमेंट संख्या केपी-2, केपी-10, केपी-11, केपी-12, केपी-13 और केपी-14 हैं।
कम्पार्टमेंट का उपयोग प्रशासनिक उद्देश्यों के लिए अभयारण्यों को विभाजित करने के लिए किया जाता है।
पीठ ने कहा, “इस न्यायालय का लगातार यह मत रहा है कि संरक्षित क्षेत्र के एक किलोमीटर के दायरे में खनन गतिविधियां वन्यजीवों के लिए खतरनाक होंगी। हालांकि गोवा फाउंडेशन के मामले में उक्त निर्देश गोवा राज्य के संबंध में जारी किए गए थे और हमें लगता है कि ऐसे निर्देश पूरे भारत में जारी किए जाने की आवश्यकता है।”
पीठ ने कहा, “हम निर्देश देते हैं कि राष्ट्रीय उद्यानों और वन्यजीव अभयारण्यों के भीतर व ऐसे राष्ट्रीय उद्यान या वन्यजीव अभयारण्य की सीमा से एक किलोमीटर के दायरे में खनन की अनुमति नहीं होगी।”
झारखंड सरकार ने शुरू में इस मामले में 57,519.41 हेक्टेयर वन भूमि को यह कहते हुए बाहर करने की मांग की थी कि इस पर सदियों से मुंडा, उरांव और संबंधित आदिवासी समुदाय निवास करते रहे हैं।
राज्य सरकार ने दलील दी कि इस कदम से आदिवासी समुदाय के वन अधिकारों की रक्षा करने और उस क्षेत्र में पहले से मौजूद विद्यालयों और शैक्षणिक संस्थानों को सुरक्षित रखने में मदद मिलेगी।
राज्य सरकार ने उच्चतम न्यायालय के समक्ष एक हलफनामे में हालांकि यह बात स्वीकार की कि 57,519.41 हेक्टेयर क्षेत्र की गणना गलती से की गई थी और 31,468.25 हेक्टेयर क्षेत्र को वन्यजीव अभयारण्य के रूप में अधिसूचित किया जाएगा।
न्यायालय ने राज्य सरकार की इस दलील को खारिज कर दिया और कहा कि वन अधिकार अधिनियम, 2006 की धारा 24(2)(सी) व अनुसूचित जनजाति एवं अन्य पारंपरिक वनवासी (वन अधिकारों की मान्यता) अधिनियम, 2006 की धारा 4(1) के साथ-साथ धारा 3 में निहित प्रावधान उक्त क्षेत्र को वन्यजीव अभयारण्य घोषित किए जाने के बाद भी आदिवासियों और वनवासियों के अधिकारों की पर्याप्त रक्षा करते हैं।
पीठ ने कहा, “यह भ्रम कि वन्यजीव अभयारण्य घोषित होने पर आदिवासियों और पारंपरिक वनवासियों के आवास व अधिकार नष्ट हो जाएंगे और शैक्षणिक संस्थान, सड़कें आदि जैसे महत्वपूर्ण सार्वजनिक ढांचे ध्वस्त हो जाएंगे, राज्य सरकार की बस कल्पना मात्र है।”
न्यायालय ने कहा, “हमारा मानना है कि इस न्यायालय के समक्ष ऐसा रुख अपनाने के बजाय राज्य सरकार को उक्त क्षेत्रों में रहने वाले आदिवासियों/वनवासियों को वन अधिकार अधिनियम और वन्य जीव संरक्षण अधिनियम के तहत उपलब्ध अधिकारों के बारे में शिक्षित करना चाहिए था।”
शीर्ष अदालत ने झारखंड सरकार को निर्देश दिया कि वह इस बात का व्यापक प्रचार करे कि इस निर्णय से उक्त क्षेत्र में रहने वाले आदिवासियों और वनवासियों के न तो व्यक्तिगत अधिकार और न ही सामुदायिक अधिकार पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ेगा।
भाषा जितेंद्र