कॉप30 : जलवायु जोखिम पर देशों की जवाबदेही के लिए अब प्रशांत द्वीपीय देशों को आईसीजे का समर्थन
(द कन्वरसेशन) मनीषा वैभव
- 13 Nov 2025, 11:55 AM
- Updated: 11:55 AM
वेलिंगटन, 13 नवंबर (द कन्वरसेशन) ब्राजील में हो रहे कॉप30 जलवायु सम्मेलन में प्रशांत द्वीपीय देश एक बार फिर वैश्विक तापमान वृद्धि को 1.5 डिग्री सेल्सियस तक सीमित रखने की अपील दोहरा रहे हैं, लेकिन इस बार उनके पास एक कानूनी समर्थन भी है जिसने जलवायु कार्रवाई को नैतिक और राजनीतिक दायित्व से बढ़ाकर अंतरराष्ट्रीय कानून के तहत एक कानूनी जिम्मेदारी बना दिया है।
इस वर्ष की शुरुआत में अंतरराष्ट्रीय न्याय अदालत (आईसीजे) ने एक परामर्श जारी करते हुए इस धारणा को खारिज कर दिया कि केवल पेरिस समझौता जैसी विशिष्ट संधियां ही जलवायु परिवर्तन पर देशों के आचरण को नियंत्रित करती हैं।
इसके बजाय, आईसीजे ने मानवाधिकार कानून, समुद्री कानून, पर्यावरणीय संधियों, परंपरागत अंतरराष्ट्रीय कानून और सामान्य कानूनी सिद्धांतों पर आधारित एक ढांचा प्रस्तुत किया, जिससे यह स्पष्ट हुआ कि देशों पर महत्वाकांक्षी जलवायु उपाय अपनाने और बनाए रखने का कानूनी दायित्व है।
छोटे द्वीपीय देशों के लिए यह राय प्रामाणिकता और शक्ति दोनों प्रदान करती है। यह जलवायु कार्रवाई को नैतिक अपील से कानूनी जवाबदेही की दिशा में एक बड़ा कदम बनाती है। छोटे द्वीपीय देश वैश्विक उत्सर्जन में बेहद कम योगदान देते हैं, लेकिन समुद्र के बढ़ते स्तर से सबसे बड़े खतरे का सामना कर रहे हैं।
दशकों से जलवायु कूटनीति नैतिक आग्रह और राजनीतिक समझौतों के बीच झूलती रही है, लेकिन आईसीजे की इस राय ने यह संकेत दिया है कि अब विवेकाधिकार के आधार पर जलवायु नीति का युग समाप्त हो चुका है।
अब देशों के सामने कानूनी रूप से बाध्यकारी, लागू होने योग्य और वैश्विक स्तर पर मान्य दायित्व हैं।
कूटनीति से जवाबदेही तक
आईसीजे की राय आने के कुछ ही दिन बाद न्यूजीलैंड की संसद ने ‘क्राउन मिनरल्स संशोधन अधिनियम’ पारित किया, जिससे समुद्र में तेल और गैस की खोज का मार्ग फिर से खुल गया। इसके बाद सरकार ने तरलीकृत प्राकृतिक गैस (एलएनजी) के आयात पर आधारित ऊर्जा नीति, कमजोर जलवायु वित्तीय प्रकटीकरण व्यवस्था और मौजूदा जलवायु कानून में कई संशोधन किए।
आईसीजे के तर्क के अनुसार, ऐसी नीतिगत फैसलों के अब अंतरराष्ट्रीय कानूनी परिणाम हो सकते हैं।
जो देश जीवाश्म ईंधन लाइसेंस जारी करते हैं, उच्च उत्सर्जन वाले उद्योगों को सब्सिडी देते हैं या पर्याप्त उत्सर्जन घटाने के लक्ष्य तय नहीं करते, वे अंतरराष्ट्रीय रूप से अवैध आचरण के दावों का सामना कर सकते हैं।
यदि किसी देश के पास ‘उच्चतम संभव महत्वाकांक्षा’ के अनुरूप उत्सर्जन घटाने की स्पष्ट नीति या न्यायसंगत बदलाव की विश्वसनीय योजना नहीं है, तो उसकी अंतरराष्ट्रीय विश्वसनीयता पर प्रश्न उठ सकता है।
प्रशांत द्वीपीय देशों के लिए कानूनी ताकत
आईसीजे की राय ने इन देशों को नैतिक आधार से आगे बढ़कर कानूनी हथियार प्रदान किया है। अब वे जलवायु सम्मेलन और वित्त पोषण मंचों में इस राय का हवाला देकर अधिक जवाबदेही, निर्णायक कार्रवाई और क्षति-हानि के मुआवजे की मांग कर सकते हैं।
आईसीजे की राय का सार
यह पहल वानुअतु के नेतृत्व में शुरू हुई थी, जब 2019 में ‘पैसेफिक आइसलैंड स्टूडेंट्स फाइटिंग क्लाइमेट चेंज’ समूह ने अदालत में यह मामला उठाया।
आईसीजे ने स्पष्ट किया कि देशों पर जलवायु क्षति को रोकने और कम करने के बाध्यकारी दायित्व हैं, जो कई अंतरराष्ट्रीय कानूनी ढांचों से उत्पन्न होते हैं। वैज्ञानिक सहमति के आलोक में ये दायित्व तत्काल और निर्णायक कार्रवाई की मांग करते हैं।
इसमें न केवल पेरिस समझौते के तहत राष्ट्रीय जलवायु योजनाओं को तैयार करना और अद्यतन करना शामिल है, बल्कि निजी क्षेत्र के आचरण को नियंत्रित करना भी शामिल है।
अदालत ने कहा कि “महत्वपूर्ण पर्यावरणीय क्षति को रोकने का दायित्व” — जो प्रथागत अंतरराष्ट्रीय कानून का एक सिद्धांत है — जलवायु प्रणाली पर भी लागू होता है, और यह सभी देशों को बाध्य करता है, चाहे वे किसी संधि का हिस्सा हों या नहीं।
न्यायालय ने यह भी स्पष्ट किया कि समुद्र के स्तर में वृद्धि के बावजूद, यहां तक कि यदि कोई द्वीपीय राष्ट्र डूब भी जाए, तो भी उसकी समुद्री सीमाओं और संसाधनों पर उसकी संप्रभुता समाप्त नहीं होती।
इस प्रकार, प्रशांत द्वीपीय देश अपनी विशेष आर्थिक क्षेत्रों पर अधिकार बनाए रखेंगे, भले ही उनकी भूमि ऐसी क्यों न हो जाए जिसमें रहना संभव न हो ।
(द कन्वरसेशन) मनीषा