व्यक्तियों की गरिमा की रक्षा के लिए डीएनए परीक्षण कड़े सुरक्षा उपायों के अधीन होना चाहिए: न्यायालय
संतोष प्रशांत
- 10 Nov 2025, 10:15 PM
- Updated: 10:15 PM
नयी दिल्ली, 10 नवंबर (भाषा) उच्चतम न्यायालय ने सोमवार को कहा कि डीएनए परीक्षण का आदेश नियमित रूप से नहीं दिया जा सकता और इसे कड़े सुरक्षा उपायों के अधीन होना चाहिए ताकि व्यक्तियों की गरिमा और विवाह के बाद जन्मे बच्चों की वैधता की रक्षा की जा सके।
न्यायमूर्ति प्रशांत कुमार मिश्रा और न्यायमूर्ति विपुल पंचोली की पीठ ने कहा कि ऐसे परीक्षणों का निर्देश देने की शक्ति का प्रयोग अत्यंत सावधानी से केवल तभी किया जाना चाहिए जब न्याय के हित में ऐसी हस्तक्षेपकारी प्रक्रिया की अनिवार्य रूप से जरूरत हो।
उच्चतम न्यायालय ने कहा कि किसी व्यक्ति को जबरन डीएनए परीक्षण के लिए बाध्य करना निजता और व्यक्तिगत स्वतंत्रता का गंभीर उल्लंघन है।
ऐसा अतिक्रमण (हस्तक्षेप) तभी उचित ठहराया जा सकता है, जब वह वैधता, राज्य के उचित उद्देश्य और अनुपातिकता, इन तीनों कसौटियों पर खरा उतरे।
न्यायालय ने कहा, ‘‘डीएनए परीक्षण का आदेश नियमित रूप से नहीं दिया जा सकता और व्यक्तियों की गरिमा और विवाह से जन्मे बच्चों की वैधता की रक्षा के लिए इसे कड़े सुरक्षा उपायों के अधीन होना चाहिए।’’
ये टिप्पणियां तमिलनाडु के एक डॉक्टर द्वारा मद्रास उच्च न्यायालय के उस आदेश को चुनौती देने वाली याचिका पर आईं, जिसमें उन्हें डीएनए प्रोफाइलिंग के लिए रक्त के नमूने एकत्र करने के लिए मदुरै के सरकारी राजाजी अस्पताल के डीन के समक्ष उपस्थित होने का निर्देश दिया गया था।
इस मामले में, पट्टुकोट्टई की एक मुस्लिम महिला ने याचिका दायर कर तर्क दिया था कि गरीबी के कारण उसे 2001 में उसी इलाके के एक तलाकशुदा व्यक्ति से शादी करनी पड़ी थी।
उसका पति त्वचा रोग से पीड़ित था, इसलिए उसने इलाज के लिए अपीलकर्ता (डॉक्टर) से संपर्क किया। अपीलकर्ता ने उसकी बीमारी का सफलतापूर्वक इलाज किया, जिसके कारण उसे संतान नहीं होने की बात डॉक्टर को बतानी पड़ी।
पति ने डॉक्टर से अनुरोध किया कि वह उसकी पत्नी को उसकी पहली पत्नी, जो स्त्री रोग विशेषज्ञ थी, के पास आवश्यक उपचार के लिए रेफर कर दे।
लेकिन रेफर करने के बजाय, डॉक्टर ने उसके साथ कथित तौर पर शारीरिक संबंध बनाए, जिसके परिणामस्वरूप आठ मार्च, 2007 को एक बच्चे का जन्म हुआ।
इसके परिणामस्वरूप, महिला याचिकाकर्ता के पति ने उसे छोड़ दिया। इस बीच, उसने एक बच्ची को जन्म दिया।
डॉक्टर ने उसकी और बच्ची की देखभाल करने का वादा किया और उसे अपने घर में किरायेदार के रूप में रहने को कहा। इसके बाद, उसने डॉक्टर की पत्नी को तीन लाख रुपये दिए और कुछ समय तक वहीं रही।
इसके बाद, उसने डॉक्टर से शादी करने और अपने रिश्ते को सार्वजनिक करने के लिए कहा। इनकार करने पर, 2014 में दोनों के बीच झगड़ा हुआ। इसके बाद, डॉक्टर ने उससे दूरी बनानी शुरू कर दी।
खुद को संभालने में असमर्थ, महिला ने एक तमिल टीवी चैनल से संपर्क किया और एक कार्यक्रम में सार्वजनिक रूप से अपनी शिकायत बयां की जिसके कारण डॉक्टर के खिलाफ भारतीय दंड संहिता की धारा 417 और 420, और तमिलनाडु महिला उत्पीड़न अधिनियम की धारा 4(1) के तहत प्राथमिकी दर्ज की गई।
शीर्ष अदालत ने अपने फैसले में उच्च न्यायालय के आदेश को यह कहते हुए खारिज कर दिया कि यह वैधानिक ढांचे और संवैधानिक सुरक्षा उपायों, दोनों की बुनियादी गलतफहमी पर आधारित है।
भारतीय दंड संहिता, 1860 की धारा 417 और 420 तथा तमिलनाडु महिला उत्पीड़न अधिनियम की धारा 4(1) के अंतर्गत आने वाले कथित अपराध न तो ऐसी प्रकृति के हैं और न ही ऐसी परिस्थिति के हैं कि डीएनए विश्लेषण की आवश्यकता हो।
भाषा संतोष