छठ, चंपारण मीट और बदलती मानसिकता: बिहार और बिहारियों की बदलती छवि को दे रहे आकार
धीरज नरेश
- 10 Nov 2025, 04:26 PM
- Updated: 04:26 PM
(मनीष सैन)
नयी दिल्ली, 10 नवंबर (भाषा) इस चुनावी मौसम में सभी का ध्यान बिहार और उन हजारों पुरुषों और महिला प्रवासियों की ओर गया है जो मतदान करने के लिए अपने गृह प्रदेश जा रहे हैं। ये वे प्रवासी हैं जो जीविका कमाने के लिए घर से हजारों किलोमीटर दूर रहते हैं और उन राज्यों की अर्थव्यवस्था में अहम योगदान देते हैं जहां वे निवास करते हैं।
बिहार विधानसभा के दो चरणों में कराए जा रहे चुनाव मंगलवार को संपन्न हो जाएंगे और लेकिन इसके नतीजों का असर पूरे देश की राजनीति पर पड़ने के आसार हैं। साथ ही इस चुनाव से प्रदेश की नयी सरकार की तस्वीर साफ होगी। हालांकि, यह केवल राजनीति नहीं है। घर से दूर बिहारी अपनी पहचान स्थापित कर रहे हैं और अपनी पुरानी छवि को नए सिरे से गढ़ रहे हैं।
हरियाणा के गुरुग्राम में रहने वाले और बिहार में जन्में एवं पले बड़े रणनीतिक संचार सलाहकार अनूप शर्मा कहते हैं कि ‘बिहारी’ एक ऐसी पहचान थी जो बोझ प्रतीत होती थी लेकिन पिछले दशक में कहीं न कहीं इस शब्द में एक नयी एवं सकारात्मक आभा पैदा हुई है।
उन्होंने कहा कि इस बदलाव का श्रेय केवल राजनीति को नहीं दिया जा सकता।
शर्मा ने ‘पीटीआई-भाषा’ से बातचीत में कहा, ‘‘उदाहरण के लिए, छठ पूजा कभी एक शांत, क्षेत्र-विशिष्ट त्योहार हुआ करता था। आज, डूबते सूर्य को अर्घ्य देती महिलाओं और पारंपरिक गीत गाते परिवारों की तस्वीरें सोशल मीडिया के जरिए दुनिया भर में फैल रही हैं।’’
उन्होंने कहा, ‘‘आप इसे मॉरीशस, मुंबई, दिल्ली के यमुना तट से लेकर न्यू जर्सी तक, इंस्टाग्राम पर ट्रेंड करते हुए देखेंगे। यह राजनीति नहीं है बल्कि वैश्विक स्तर पर जुड़ाव है। जो कभी नदी तट पर एक रस्म थी, वह अब पीढ़ियों और भौगोलिक क्षेत्रों के बीच एक सेतु बन गई है।’’
शर्मा ने कहा कि मेरे विचार से यह एक अस्मिता से जुड़ाव की कहानी है।
उन्होंने कहा, ‘‘जब राजनीतिक दल मुंबई या दिल्ली जैसे शहरों में घाटों की व्यवस्था करते हैं या श्रद्धालुओं के लिए सुविधाएं प्रदान करते हैं, तो वे सिर्फ वोट हासिल करने के लिए नहीं होतीं, बल्कि उनकी उपस्थिति को भी स्वीकार कर रही होती हैं। जो प्रवासी कभी हाशिये पर रहते थे, उन्हें अब योगदानकर्ता, सांस्कृतिक पथप्रदर्शक के रूप में देखा जाता है।’’
दिवाली के एक हफ्ते बाद छठ का उत्साह भारत के बड़े हिस्से में छा जाता है। यह वह समय होता है जब लाखों बिहारी अपने सबसे बड़े त्योहार के लिए घर लौटते हैं और एक तरह से ‘घर वापसी’ करते हैं।
पिछले कुछ वर्षों से जो लोग घर वापस नहीं लौट पाते, उनके लिए दिल्ली, उत्तर प्रदेश, हरियाणा, पश्चिम बंगाल और मध्य प्रदेश सहित राज्य सरकार द्वारा धूमधाम से त्योहार मनाने के लिए व्यवस्था की जाती है।
बिहार की संस्कृति और जीवनशैली के अन्य प्रमुख चिह्नों को राज्य के बाहर भी तेजी से स्वीकृति मिल रही है फिर चाहे चंपारण मीट और ‘लिट्टी चोखा’ बेचने वाली दुकानों हों या बिहार के छुपी हुई धरोहरों को दिखाने वाले सोशल मीडिया क्रिएटर्स और चुटकुले सुनाने वाले स्टैंड-अप कॉमेडियन।
क्या यह बिहार और उसके लोगों की छवि में आमूलचूल परिवर्तन की ओर इशारा करता है? अब वे भारत के विकास में कितने अभिन्न हैं?
क्या ‘बिहारी’ शब्द अपने अर्थ से आगे बढ़ चुका है और क्या यह पंजाबी, मराठी या बंगाली की तरह स्वीकार्य हो गया है?
इन प्रश्नों का कोई निश्चित उत्तर नहीं है, लेकिन प्रवासी बिहारी महसूस करते हैं कि माहौल में बदलाव आया है, रूढ़िवादिता टूट रही हैं, और भविष्य अलग दिख रहा है, यदि पूरी तरह से सकारात्मक नहीं, तो उस भयावह अतीत से तो बेहतर स्थिति जरूर हुई है जहां कभी नकारात्मकता, गरीबी, अवसरों और स्वीकृति की कमी थी।
जनगणना-2011 के मुताबिक बिहार के 74.5 लाख से ज़्यादा लोग देश के अन्य हिस्सों में निवास करते हैं। अंतरराष्ट्रीय श्रम संगठन (आईएलओ)और मानव विकास संस्थान द्वारा प्रकाशित एक अन्य रिपोर्ट के मुताबिक 2021 में, बिहार के 39 प्रतिशत प्रवासी रोजगार की तलाश में राज्य छोड़कर चले गए।
बिहार के निवासियों के प्रति सकारात्मक रुख केवल राजनीतिक नहीं है बल्कि बिहार के भोजन, बुनियादी ढांचे, पर्यटन और बिहार के लोगों के व्यापक क्षेत्र में कार्य के संबंध में शांत लेकिन सकारात्मक बदलाव आ रहा है।
बिहार के लोगों को पहले केवल दो छोरों पर देखा जाता था एक वे जो मजूदूरी करते थे या फिर नौकरशाह थे लेकिन अब इसका दायरा विस्तृत हुआ है।
बिहार में जन्मे और पले-बढ़े लेखक-कवि और राजनयिक अभय के. ने कहा कि भारत और दुनिया के विभिन्न हिस्सों में काम करने वाले राज्य के पेशेवरों में ‘‘स्वाभाविक वृद्धि’’ हुई है और वे जहां भी हैं, अपनी संस्कृति को संजोए हुए हैं।
‘नालंदा: हाउ इट चेंज्ड द वर्ल्ड’ के लेखक ने अभय ने कहा, ‘‘बिहार के पेशेवर प्रवासी कामगार होने के अलावा, अत्याधुनिक तकनीकी क्षेत्रों (आईटी, एआई, जैव प्रौद्योगिकी आदि), वित्त, निवेश, प्रबंधन, प्रशासन, कूटनीति, साहित्य, चिकित्सा, शिक्षा, राजनीति सहित कई क्षेत्रों में योगदान दे रहे हैं। बिहार के किसी व्यक्ति को बिहारी कहना अब कोई गाली नहीं रही। यह गर्व की बात है।’’
उन्होंने कहा कि बिहार में महत्वपूर्ण विकास हुआ है, जिसमें ‘‘भारत के सर्वश्रेष्ठ संग्रहालय’’ का उद्घाटन और नालंदा विश्वविद्यालय का पुनरुद्धार शामिल है - जो नालंदा महाविहार के खंडहरों के साथ-साथ अपनी वास्तुकला की वजह से दर्शनीय है।
पटना के उद्यमी नीहार आर. ने स्वीकार किया कि अब भी बड़ी संख्या में प्रवास हो रहा है लेकिन बिहारी प्रवासियों की छवि धीरे-धीरे लेकिन लगातार सुधर रही है। हालांकि उन्होंने राज्य में और अधिक अवसर सृजित करने पर जोर दिया।
पीआर और ब्रांडिंग प्लेटफॉर्म ‘बिहार से’ के संस्थापक ने कहा,‘‘राजनीति, खासकर त्योहारों के दौरान, लोगों को आकर्षित करने में अपनी भूमिका निभाती है, लेकिन असली प्रेरणा तो खुद लोगों की तरफ से आई है, जिन्होंने अपने-अपने तरीके से बिहार को फिर से तलाशना शुरू कर दिया है। जनता और राजनीति, दोनों ही बिहार की ‘दशा’ और 'दिशा' बदल रहे हैं और यही सबसे अच्छा पहलू है।’’
‘बिहार से’ दुनिया भर में बिहारियों को फिर से जोड़ने के लिए समर्पित है।
बिहार की पुनः खोज कई तरीकों से हुई है, जिसमें सोशल मीडिया कंटेंट क्रिएटर्स और स्टैंड-अप कॉमेडियन शामिल हैं, जो अपने वीडियो में राज्य को दिखा रहे हैं।
हालांकि, अभी लंबा सफर तय करना है। बिहार की वृहद कहानी में सब कुछ सकारात्मक नहीं है, लेकिन उम्मीद की किरणें भी कम नहीं हैं।
गुरुग्राम स्थित इंटेलीनेक्सस वेंचर्स के प्रबंध साझेदार मानवेन्द्र प्रसाद का मानना है, रूढ़िवादी धारणाएं और नकारात्मक धारणाएं तब तक जारी रहेंगी, ‘‘जब तक बिहार आर्थिक समृद्धि के मामले में देश के बाकी हिस्सों के बराबर नहीं पहुंच जाता।’’
प्रसाद ने कहा, ‘‘देश के कुछ हिस्सों में जहां पेशेवरों की तुलना में बिहारियों का गरीब तबका ज़्यादा है, वहां छवि अब भी खराब है और भेदभाव साफ दिखाई देता है, उदाहरण के लिए पंजाब में। कुछ उदाहरण बताते हैं कि ऑनलाइन बिहार विरोधी भावना काफी मुखर है।’’
भाषा धीरज