नकदी बरामदगी मामला: न्यायालय ने न्यायमूर्ति यशवंत वर्मा से उनकी याचिका को लेकर सवाल किए
गोला दिलीप
- 28 Jul 2025, 05:23 PM
- Updated: 05:23 PM
नयी दिल्ली, 28 जुलाई (भाषा) उच्चतम न्यायालय ने इलाहाबाद उच्च न्यायालय के न्यायाधीश यशवंत वर्मा से उनकी उस याचिका को लेकर सवाल किए, जिसमें उन्होंने नकदी बरामदगी मामले में आंतरिक जांच समिति की रिपोर्ट को चुनौती दी है।
न्यायालय ने उनसे पूछा कि इस प्रक्रिया में भाग लेने के बाद वह इस पर सवाल कैसे उठा सकते हैं।
आंतरिक जांच समिति ने न्यायमूर्ति वर्मा के दिल्ली स्थित आवास से नकदी बरामदगी मामले में उन्हें कदाचार का दोषी पाया था। न्यायमूर्ति वर्मा जब मार्च में दिल्ली उच्च न्यायालय के न्यायाधीश थे, तो उनके सरकारी आवास से कथित तौर पर बड़ी मात्रा में जली हुई नकदी मिली थी।
न्यायमूर्ति दीपांकर दत्ता और न्यायमूर्ति ए.जी. मसीह की पीठ ने न्यायमूर्ति वर्मा से पूछा कि उन्होंने जांच पूरी होने और रिपोर्ट जारी होने का इंतजार क्यों किया।
पीठ ने न्यायमूर्ति वर्मा का प्रतिनिधित्व कर रहे वरिष्ठ अधिवक्ता कपिल सिब्बल से पूछा, ‘‘वह (वर्मा) जांच समिति के सामने क्यों पेश हुए? क्या आप अदालत इसलिए आए थे कि वीडियो हटा दिया जाए? आपने जांच पूरी होने और रिपोर्ट जारी होने का इंतज़ार क्यों किया? क्या आप समिति के पास यह सोचकर गए कि शायद आपके पक्ष में फैसला आ जाए?’’
सिब्बल ने कहा कि समिति के सामने पेश होना उनके (न्यायमूर्ति वर्मा) खिलाफ नहीं माना जा सकता।
सिब्बल ने कहा, ‘‘मैं इसलिए उपस्थित हुआ, क्योंकि मुझे लगा कि समिति यह पता लगाएगी कि नकदी किसकी है।’’
शीर्ष अदालत न्यायमूर्ति वर्मा की उस याचिका पर सुनवाई कर रही है, जिसमें आंतरिक जांच समिति की रिपोर्ट को अमान्य करार देने का अनुरोध किया गया है। इस रिपोर्ट में उन्हें नकदी बरामदगी मामले में कदाचार का दोषी पाया गया है।
याचिका में न्यायमूर्ति वर्मा की पहचान का खुलासा नहीं किया गया है और इसका शीर्षक है, ‘‘एक्स एक्स एक्स बनाम भारत संघ’’।
न्यायालय ने न्यायमूर्ति वर्मा से उनकी याचिका में बनाए गए पक्षकारों को लेकर सवाल किए और कहा कि उन्हें अपनी याचिका के साथ आंतरिक जांच रिपोर्ट दाखिल करनी चाहिए थी।
पीठ ने कहा, ‘‘यह याचिका इस तरह दायर नहीं की जानी चाहिए थी। कृपया देखें कि यहां पक्षकार रजिस्ट्रार जनरल है, न कि महासचिव। पहला पक्षकार उच्चतम न्यायालय है, क्योंकि आपकी शिकायत उल्लेखित प्रक्रिया के खिलाफ है। हम वरिष्ठ वकील से यह अपेक्षा नहीं करते कि वह मामले के शीर्षक पर गौर करेंगे।’’
वरिष्ठ अधिवक्ता कपिल सिब्बल ने पीठ के समक्ष कहा कि अनुच्छेद 124 (उच्चतम न्यायालय की स्थापना और गठन) के तहत एक प्रक्रिया है और किसी न्यायाधीश को सार्वजनिक बहस का विषय नहीं बनाया जा सकता।’’
सिब्बल ने कहा, ‘‘संवैधानिक व्यवस्था के अनुसार, उच्चतम न्यायालय की वेबसाइट पर वीडियो जारी करना, सार्वजनिक टीका टिप्पणी और मीडिया द्वारा न्यायाधीशों पर आरोप लगाना प्रतिबंधित है।”
उन्होंने कहा कि जांच समिति की रिपोर्ट महाभियोग प्रस्ताव का आधार नहीं बन सकती।
बहरहाल, पीठ ने रिकॉर्ड का हिस्सा न होने वाली किसी भी बात पर गौर करने से इनकार कर दिया।
पीठ ने कहा, ‘‘आपको याचिका और कानून की चार सीमाओं के आधार पर हमें संतुष्ट करना होगा। यह पत्र प्रधान न्यायाधीश (सीजेआई) ने किसे भेजा? न्यायाधीश की नियुक्ति राष्ट्रपति करते हैं। प्रधानमंत्री को इसलिए क्योंकि राष्ट्रपति मंत्रिपरिषद की सलाह और सहयोग से कार्य करते हैं। तो फिर इन पत्रों को भेजने का यह कैसे अर्थ निकाला जा सकता है कि यह संसद के महाभियोग चलाने के लिये है?’’
शीर्ष अदालत ने सिब्बल से कहा कि वे एक पृष्ठ में मुख्य बिंदुओं के साथ आएं और पक्षकारों की सूची को सुधारें।
न्यायालय अब इस मामले पर 30 जुलाई को सुनवाई करेगा।
न्यायमूर्ति वर्मा ने भारत के तत्कालीन प्रधान न्यायाधीश संजीव खन्ना द्वारा आठ मई को की गई उस सिफारिश को भी रद्द किए जाने का अनुरोध किया है, जिसमें उन्होंने (खन्ना) संसद से उनके (वर्मा) खिलाफ महाभियोग की कार्यवाही शुरू करने का आग्रह किया था।
अपनी याचिका में न्यायमूर्ति वर्मा ने कहा कि जांच ने साक्ष्य पेश करने की जिम्मेदारी बचाव पक्ष पर डाल दी, जिसके तहत उनके विरुद्ध लगाए गए आरोपों की जांच करने और उन्हें गलत साबित करने का भार उन पर डाल दिया गया है।
न्यायमूर्ति वर्मा ने आरोप लगाया कि समिति की रिपोर्ट पहले से तय धारणा पर आधारित थी। उन्होंने कहा कि जांच की समय-सीमा केवल कार्यवाही को जल्द से जल्द समाप्त करने की इच्छा से प्रेरित थी, चाहे इसके लिए “प्रक्रियात्मक निष्पक्षता” से ही क्यों न समझौता करना पड़े।
याचिका में तर्क दिया गया कि जांच समिति ने वर्मा को पूर्ण और निष्पक्ष सुनवाई का अवसर दिए बिना ही उनके खिलाफ निष्कर्ष निकाल दिया।
घटना की जांच कर रही जांच समिति की रिपोर्ट में कहा गया था कि न्यायमूर्ति वर्मा और उनके परिवार के सदस्यों का स्टोर रूम पर गुप्त या सक्रिय नियंत्रण था, जहां आग लगने की घटना के बाद बड़ी मात्रा में अधजली हुई नकदी मिली थी, जिससे उनका कदाचार साबित होता है, जो इतना गंभीर है कि उन्हें हटाया जाना चाहिए।
पंजाब एवं हरियाणा उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश शील नागू की अध्यक्षता वाले तीन न्यायाधीशों की समिति ने इस मामले की 10 दिन तक जांच की, 55 गवाहों से पूछताछ की और उस घटनास्थल का दौरा किया, जहां 14 मार्च रात करीब 11 बजकर 35 मिनट पर न्यायमूर्ति वर्मा के आधिकारिक आवास पर दुर्घटनावश आग लगी थी। न्यायमूर्ति वर्मा उस समय दिल्ली उच्च न्यायालय के न्यायाधीश थे और अब इलाहाबाद उच्च न्यायालय में न्यायाधीश हैं।
तत्कालीन प्रधान न्यायाधीश खन्ना ने रिपोर्ट पर कार्रवाई करते हुए राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू और प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी को पत्र लिखकर वर्मा के खिलाफ महाभियोग चलाने की सिफारिश की थी।
भाषा
गोला