जीवन में इतने रंग कैसे भरते चले गए?
(द कन्वरसेशन) पारुल नरेश
- 18 Feb 2025, 05:41 PM
- Updated: 05:41 PM
(जोनाथन गोल्डनबर्ग, लुंड विश्वविद्यालय)
लुंड (स्वीडन), 18 फरवरी (द कन्वरसेशन) अगर आपसे आदिकालीन पृथ्वी का चित्र उकेरने को कहा जाए, तो आप कागज पर हल्के भूरे, स्लेटी और हरे रंगों से सजी दुनिया बनाएंगे। वहीं, अगर आपसे आज की दुनिया की तस्वीर बनाने को कहा जाए, तो आप विविध रंगों से भरा मनोरम दृश्य उकेरेंगे।
मोरों के दिलकश पंखों से लेकर फूलों की खूबसूरत पंखुड़ियों तक, पृथ्वी पर मौजूद जीवन में रंग भरने की कहानी बेहद दिलचस्प है। एक नया अनुसंधान इस कहानी के विभिन्न पहलुओं पर प्रकाश डालता है।
रंगीन दुनिया की तरफ हमारी यात्रा दृष्टि के विकास के साथ शुरू हुई। दृष्टि का विकास लगभग 60 करोड़ वर्ष पहले अंधेरे और रोशनी के बीच अंतर करने के लिए हुआ था।
यह क्षमता संभवतः प्रारंभिक जीवों में उत्पन्न हुई, जैसे एकल-कोशिका बैक्टीरिया, जो उन्हें अपने पर्यावरण में परिवर्तन, जैसे कि सूर्य के प्रकाश की दिशा का पता लगाने में सक्षम बनाती है। समय के साथ अधिक परिष्कृत दृश्य प्रणालियां विकसित हुईं और जीवों ने प्रकाश के व्यापक स्पेक्ट्रम को समझने की क्षमता हासिल कर ली।
उदाहरण के लिए, ट्राइक्रोमैटिक दृष्टि यानी लाल, हरा और नीला जैसे तीन अलग-अलग तरंग दैर्ध्य का पता लगाने की क्षमता, जो लगभग 50 से 55 करोड़ वर्ष पहले विकसित हुई थी। इसी अवधि के आसपास ‘कैम्ब्रियन विस्फोट’ (लगभग 54 करोड़ वर्ष पहले) की घटना घटी, जिसमें दृष्टि सहित कई अन्य उन्नत संवेदी प्रणालियों के विकास के साथ ही जानवरों का कई समूह अस्तित्व में आय़ा।
आर्थ्रोपॉड (अकशेरुकी जीवों का एक समूह, जिसमें कीड़े, मकड़ी, केकड़ा, झींगा आदि शामिल हैं) ट्राइक्रोमैटिक दृष्टि वाले पहले जीव थे।
कशेरुकी जीवों में ट्राइक्रोमैटिक दृष्टि का विकास 42 से 50 करोड़ वर्ष पहले हुआ था। इस अनुकूलन ने प्राचीन जानवरों को अपने वातावरण में बेहतर ढंग से विचरण करने और शिकारियों एवं शिकार का पता लगाने में सक्षम बनाया।
लगभग 50 करोड़ वर्ष पहले समुद्र में पाए जाने वाले आर्थ्रोपोड 'ट्रिलोबाइट' के जीवाश्म साक्ष्य से पता चलता है कि उनकी यौगिक आंखें थीं। यौगिक आंखों का मतलब कई छोटे लेंस वाली आंखों से है। इनमें से प्रत्येक लेंस दृश्य क्षेत्र के एक अंश को कैद करता है और सभी लेंस मिलकर एक मोजैक छवि बनाते हैं। यौगिक आंखें कई तरंग दैर्ध्य का पता लगा सकती हैं, जिससे जानवरों की दृष्टि के साथ-साथ गतिविधियों को भांपने की क्षमता में सुधार होता है और उन्हें कम रोशनी वाले समुद्री वातावरण में विकासवादी लाभ मिलता है।
विशिष्ट रंगों का पहला विस्फोट पौधों से हुआ। शुरुआती पौधों ने कीटों और जानवरों को बीज एवं परागकण के छिड़काव के लिए आकर्षित करने के वास्ते लाल, पीले, नारंगी, नीले और बैंगनी जैसे रंगीन फल-फूल पैदा करना शुरू कर दिया।
वर्तमान पौधों की विविधता पर आधारित विश्लेषणात्मक मॉडल से पता चलता है कि रंगीन फल, जो लगभग 30 से 37.7 करोड़ वर्ष पहले अस्तित्व में आए थे, बीज फैलाने वाले जानवरों जैसे कि शुरुआती स्तनधारी जीवों के साथ सह-विकसित हुए थे। फूल और उनके पराग कण का छिड़काव करने वाले जानवर लगभग 14 से 25 करोड़ वर्ष पहले उभरे।
करीब 10 करोड़ वर्ष पहले क्रेटेशियस काल में फूल वाले पौधों (एंजियोस्पर्म) के उदय ने रंगों की बहार ला दी, क्योंकि फूलों ने पराग कण का छिड़काव करने वाले मधुमक्खियों, तितलियों और पक्षियों जैसे जीवों को आकर्षित करने के लिए बीजों की तुलना में अधिक चमकीले एवं जीवंत रंग विकसित किए।
यह समयरेखा बताती है कि रंगों का विकास अपरिहार्य नहीं था, इसे पारिस्थितिकी और विकासवादी कारकों ने आकार दिया था, जिसके कारण अलग-अलग परिस्थितियों में अलग-अलग परिणाम हो सकते थे।
जीवंत रंग अक्सर साथियों को आकर्षित करने, शिकारियों को दूर भगाने या प्रभुत्व स्थापित करने के लिए एक प्रकार के संकेत के रूप में विकसित होते गए। यौन चयन ने संभवतः इन परिवर्तनों को बरकरार रखने में अहम भूमिका निभाई।
एंचियोर्निस जैसे पंख वाले डायनासोर के जीवाश्म मेलानोसोम (वर्णक युक्त कोशिका संरचनाएं. जिन्हें ऑर्गेनेल कहा जाता है) चटक लाल रंग के थे। ये पंख संभवतः प्रदर्शन के उद्देश्य से, साथियों को फिटनेस का संकेत देने या प्रतिद्वंद्वियों को डराने के लिए काम आते थे। इसी तरह, हरे और काले रंग के सांप की त्वचा के जीवाश्म संकेत देते हैं इनका इस्तेमाल छलावरण के लिए किया जाता था।
पृथ्वी पर जीवों का रंग लगातार बदल रहा है। जलवायु परिवर्तन, निवास स्थान की हानि और मानव हस्तक्षेप सहित विभिन्न कारक जीवों के रंगों को प्रभावित कर रहे हैं। उदाहरण के लिए, प्रदूषित जल के संपर्क में आने वाली मछली की कुछ नस्लें अपना जीवंत रंग खो रही हैं, क्योंकि विषाक्त पदार्थ रंगद्रव्य उत्पादन या दृश्य संचार को बाधित करते हैं।
(द कन्वरसेशन) पारुल